राखुंडा नई पीढ़ी के लिए शायद नया शब्द हो, परंतु दक्षिणी पंजाब, हरियाण व राजस्थान में दो दशक पहले तक यह जीवन का हिस्सा था। राख और कुंड शब्दों की संधि से बना राखकुंड शब्द घिस-घिस कर राखुंडा बना होगा शायद। घर में बर्तन-कासन मांजने वाला स्थान था राखुंडा, जहां जरूरत अनुसार गड्ढे या बर्तन में राख अथवा मिट्टी रखी जाती। भांडे मांजने की युगों से चली आ रही हमारी प्रणाली थी राखुंडा जिसे हर प्रांत में अलग अलग नाम मिला हुआ था। बहुत आसान व सस्ता था बर्तन मांजना। पहली बात तो कभी जूठा छोड़ा नहीं जाता था और अगर किसी बर्तन में जूठ मिल भी जाती तो एक बर्तन में एकत्रित कर लिया जाता जो बाद में जानवरों को दे दिया जाता। फिर बर्तन में राख डाल कर रगड़ाई होती और बाद में साफ कपड़े से उसे पोंछा जाता। बर्तन चमचमाने लगते, पूरे घर के कासन मंज जाते परंतु मजाल है कि पानी की एक बूंद की भी जरूरत पड़े।
बर्तन आज भी साफ होते हैं परंतु, शिरिंक पर। जूठे बर्तनों में पानी भर कर पहले भिगोया जाता है और उसके बाद धोया जाता है। बाद में किसी डिटर्जेंट पाऊडर या बर्तन सोप के साथ स्क्रबर की सहायता से बर्तनों की रगड़ाई होती है और फिर से धुलाई। टोटियां पानी उगलती हैं तो पता ही नहीं चलता कि कितनी मात्रा में जल देवता स्वर्गलोक से उतर कर गटरासन पर विराजमान हो जाते हैं। आज जब देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जल संकट दानव रूप ले चुका है तो राखुंडे की अनायास ही याद हो आई। देश में जलसंकट की बानगी देखिए, चेन्नई में जल संकट के कारण कई बड़ी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को कहा है कि वह दफ्तर का कार्य घर से ही करें ताकि पानी की खपत कम की जा सके। संगापेरुमल इलाके की कुछ कंपनियों ने तो शौचालयों में ताला लगाना शुरू कर दिया है। अगर किसी कंपनी के दफ्तर में एक तल पर दस शौचालय हैं तो उनमें से आठ को बंद कर दिया गया है।
राजस्थान में कई जगहों पर लोगों ने पानी की टंकियों को ताले लगाने शुरू कर दिए हैं। पानी बचाने के लिए कई राज्य सरकारों ने होटल स्वामियों से अपने यहां प्लेटों की जगह पत्तलों का इस्तेमाल करने को कहा है ताकि इससे बर्तन धोने का पानी बचाया जा सकेगा। पिछले दिनों हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने मीडिया से बातचीत करते हुए बताया था कि राज्य में 75 प्रतिशत भूजल की खपत हो चुकी है। 22 जिलों में से 10 जिलों का जमीन भू-जल स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। पंजाब में भी धरती के नीचे का पानी खतरनाक स्तर पर घट रहा है। पांच नदियों की भूमि पंजाब में हर साल भूजल दो से तीन फुट तक गिर रहा है। आज हालात ये हैं कि राज्य के 141 में से 107 खण्ड डार्क जोन में हैं। एक दर्जन के करीब क्रिटिकल डार्क जोन में चले गए हैं। क्रिटिकल डार्क जोन में नया ट्यूबवैल लगाने पर जहां केंद्रीय भूजल बोर्ड ने पाबंदी लगा दी है।
कमोबेश यही हालत देश के लगभग हर प्रांत की बनी हुई है। जलसंकट की जननी है हमारी बदलती जीवन शैली, वह प्रणाली जिसमें विलासिता, सुविधाभोग, निर्दयता, जिम्मेवारी के एहसास की कमी के तत्वों की प्रधानता है। जल जिसे हमारे ऋषियों ने देवता माना और नानक ने पिता के समान आदरणीय बताया, आज हमारे लिए केवल और केवल खरीद फरोगत व दुरुपयोग की वस्तु मात्र बन गई है। सच है कि आज का मानव प्रकृति के साथ कुछ-कुछ दानव जैसा व्यवहार करने लगा है। जल, जमीन, जंगल और जानवरों का हो रहा विनाश इसी ओर इशारा करता है कि हम वो नहीं रहे जिसके लिए जाने जाते थे। शेव या पेस्ट करते हुए वाशवेशन का नल चलता रहना, टंकि यों का ओवरफ्लो, पाईपों से पानी का बहते रहना, बहती टूटियों पर ध्यान न देना आदि अनेक इसी दानवी व्यवहार के उदाहरण हैं जो सामान्य रूप से हमारे घरों में मिल जाते हैं। कल्पना करें जिस दिन पानी हमारे बीच नहीं होगा।
राकेश सैन
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)