जीवन रक्षक काम रोकना ठीक नहीं

0
241

पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों ने हड़ताल की और फिर पूरे देश के डॉक्टर इसमें शामिल हुए। इस किस्म का भाईचारा दूसरे पेशेवरों और कारोबारियों में भी दिखता है। आमतौर पर इस तरह की हड़ताल और भाईचारे का प्रदर्शन राजनीति का ही हिस्सा होते हैं। पर ममता बनर्जी डॉक्टरों की हड़ताल को सीपीएम और भाजपा की राजनीति बता कर ही फंसीं। असल में वे इसकी गहराई को नहीं समझ पाईं, जबकि वे उस राज्य की नेता हैं, जहां कोई भी नेता हड़ताल, प्रदर्शन और आंदोलन से ही बनता है।

बहरहाल, कोलकाता में डॉक्टरों की हड़ताल और उसके समर्थन में देश भर के डॉक्टरों का प्रदर्शन करना और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का देश भर में एक दिन की हड़ताल की अपील करना एक गंभीर मुद्दा है। इसे अब तक हुई दूसरी घटनाओं की तरह मान कर अगर छोड़ दिया गया और गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो आए दिन इस तरह की घटनाएं होंगी और फिर सरकारों के हाथ में कुछ नहीं रह जाएगा। इसे गंभीरता से लेने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि फिर कभी ऐसा नहीं हो। डॉक्टर और दूसरे जानकार लोग भी मांग कर रहे हैं कि डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए जाएं।

हकीकत यह है कि कानून पहले से बने हुए हैं। चिकित्सा या दूसरी जरूरी सेवाओं से जुड़े लोगों की हड़ताल को नियंत्रित करने के लिए भी कानून बना हुआ है। असली जरूरत इन दोनों कानूनों को पूरी सख्ती से लागू करने की है। डॉक्टरों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए और साथ ही यह भी सुनिश्चित की जाए कि उनकी वजह से लोगों को परेशानी नहीं हो।

ऐसा लग रहा है कि कोलकाता की एक घटना के बहाने देश भर के चिकित्सा संघों के पदाधिकारियों ने ममता बनर्जी को सबक सिखाने का प्रयास किया। अन्यथा यह कोई ऐसी घटना नहीं है, जो पहली बार हुई है। इससे पहले कई बार देश के अलग अलग हिस्सों में डॉक्टरों पर हमले हुए हैं। तब भी विरोध प्रदर्शन हुए पर कामकाज भी जारी रहा। डॉक्टरों ने अनेक मौकों पर काली पट्टी बांध कर मरीजों का इलाज किया। विरोध प्रदर्शन की यहीं परंपरा रही है।

पर कोलकाता की घटना को जैसा राजनीतिक रूप दिया गया वह अभूतपूर्व है। इस हड़ताल की तीव्रता को देख कर ऐसा लग रहा है कि चिकित्सक देश और समाज की हकीकत से रूबरू नहीं हैं। उन्हें इसका भी अंदाजा नहीं है कि उनके बारे में आम लोग क्या सोचते हैं।

हकीकत यह है कि भारत में हर व्यक्ति भगवान से यहीं मांगता है कि उसे पुलिस, अदालत और अस्पताल के चक्कर न लगाने पडें। आम लोग इन तीनों को शोषण का अड्डा मानते हैं। सैकड़ों ऐसी घटनाओं की मिसाल दी जा सकती है, जहां मरीज के मर जाने के बाद तक उनका इलाज चलता रहा और लाखों रुपए के बिल ऐंठे गए। कई मिसालें हैं जब बिल नहीं चुका पाने के कारण परिजनों को शव नहीं सौंपे गए।

डेंगू के इलाज पर 13 लाख का बिल बनाने का मामला तो राजधानी से सटे गुड़गांव के अस्पताल का ही था। गलत इलाज करने की हजारों घटनाएं देश में होती हैं। मामूली बीमारी में दस तरह के जांच लिख कर मरीजों को हजारों रुपए का चूना लगाना तो आम घटना है। दवा कंपनियों और जांच लैबोरेटरियों से कमीशन खाना भी चिकित्सा के पेशे में आम माना जाता है। हालांकि इन सारी कमियों का यह मतलब नहीं है कि किसी मरीज के परिजन डॉक्टर की पिटाई कर दें। इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए। डॉक्टरों से मारपीट करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का कानून बना हुआ है। उसे सख्ती से लागू करना चाहिए।

पर सवाल है कि क्या कोई सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि देश के किसी भी हिस्से में डॉक्टरों के खिलाफ कोई हिंसा नहीं होगी? यह कतई संभव नहीं है। इस हकीकत को डॉक्टरों को समझना चाहिए। उन्हें दूसरे पेशेवरों की तरफ देखना चाहिए। पिछले एक महीने में पत्रकारों के खिलाफ कैसी हिंसा हुई है क्या डॉक्टरों ने इसे देखा? उत्तर प्रदेश में एक मामूली ट्विट के आरोप में तीन पत्रकारों को पुलिस पकड़ कर ले गई। एक पत्रकार की थाने में पिटाई और उसके मुंह पर पेशाब कर देने की घटना भी दस दिन पुरानी है। देश में दर्जनों पत्रकारों की हत्या हो गई है। क्या किसी ने सुना कि चैनल और अखबार बंद हो गए हैं और पत्रकारों ने काम करने से इनकार कर दिया है? उन्होंने विरोध किया पर काम बंद नहीं किया।

डॉक्टरों को समाज की इस हकीकत को समझना चाहिए। आए दिन चुने हुए जन प्रतिनिधियों पर जूते चलने या मुंह काला करने की घटनाएं होती हैं। पुलिस पार्टी पर आए दिन हमले की खबरें आती हैं। प्रशासनिक अधिकारियों की पिटाई भी आम घटना है। फिरौती या किसी दूसरे कारण से कारोबारियों का अपहरण और उनके साथ मारपीट की घटनाएं भी आम होती हैं। पर कोई भी पेशेवर या कारोबारी संघ काम बंद करके नहीं बैठता है। विरोध प्रदर्शन होना चाहिए और सुरक्षा की मांग होनी चाहिए पर काम ठप्प करना और वह भी जीवन रक्षक काम को रोकना ठीक नहीं है।

चिकित्सकों और तमाम दूसरे पेशेवरों को यहीं बात समझने की जरूरत है कि आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि प्रतिष्ठित माने जाने वाले पेशेवरों पर हमले बढ़ रहे हैं? उन्हें अपने अंदर की कमियों को दूर करना होगा। इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनके हितों की रक्षा के लिए बने संघ जातिवाद और राजनीति का अड्डा नहीं बनें। वे किसी खास दल के हितों को पूरा करने के लिए काम नहीं करें, यह भी सुनिश्चित करना होगा।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here