यह राजनीति देश के लिए घातक

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यह सही है कि राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है। यह युगों-युगों से स्थापित समाजिक जीवन में विकृत चोस में सकारात्मक परिवर्तन का प्रतीत हो सकता है। लेकिन हम इस पर संतोष नहीं कर सकते। यह माना गया था कि भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय जातिवाद तथा साम्परदायिकता पर राष्ट्रवाद की जीत है। पर, सत्तासीन होने के पश्चात यह संदेश भी मोदी सरकार ने दिया कि वह पहली परम्परागत राजनीति से पृथक नहीं है। यह सही है कि मुस्लिमों शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यह अनिवार्यता समाज के सगाी अंगों के लिए है। यह आवश्यक भी था, मदरसों को युगीन शिक्षा से जोड़ा जाना चाहिए था।

पर, क्या देश के हजारों गुरुकुल शासन की कृपा के पात्र नहीं हैं? क्या वहां पढऩे वाले बच्चों को कम्प्यूटर का ज्ञान नहीं चाहिए? ये गुरुकुल देश को सैनिक तथा खिलाड़ी देते हैं, भारतीय संस्कृति के ज्ञाता प्रदान करते हैं, इनकी अवहेलना का औचित्य क्या है? जब मदरसों का ध्यान आया तो गुरुकुलों का क्यों नहीं आया? यही गोदकारी राजनीति समाज में अलगाववाद को जन्म देती है। बात यही समाप्त नहीं होती, व्यह्वितवाद तथा
अहंकारवाद भी भारतीय राजनीति में स्पष्ट दिगााई दे रहा है। कांग्रेस आत्म निरीक्षण को तैयार नहीं है। ममता बनर्जी की अहंकारवादी राजनीति ने महापुरुषों की भूमि को हिंसा का केंद्र बना दिया है। इन परिस्थितियों में हम यह विचार करें कि मूल्य किसी वस्तु का भाव ही निर्धारित नहीं करते अपितु हमारे व्यवहार और चिन्तन की सात्विक दिशा का निर्धारण भी करते है।

वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम यह बताते हैं कि राजनीति में मूल्यों का अवमूल्यन नहीं अपितु निष्कासन हो रहा है। यदि मूल्य होते तो अनेक राजनेताओं की जबान पर ताला होता। देश विकास पर सार्थक बहस होती और ऐसे निष्कर्ष निकलकर आते जो देश की मूल समस्याओं का समाधान खोजते। आज हालत यह है कि राजनीतिक बयान गाली गलौज और अश्लील टिप्पणी के रूप में सामने आ रहे है। यह सामान्य नियम है कि संस्कारों का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है। यदि वे लोग संस्कारहीन होंगे जो राजनीति के माध्यम से समाज और व्यवस्था को नियंत्रित करते है तो किसी सभ्य और जिम्मेदार समाज की आशा नहीं की जा सकती। वर्तमान भारत का दुर्भाग्य यही है कि हमारे पास हजारों की संख्या में राजनेता है जो कुर्सी की जंग में लगे रहते हैं लेकिन एक भी लोक नेता नहीं है। जब लोक नेता बनने की सोच और संकल्प ही अनुपस्थित है तो राष्ट्रीय हितों और उसके अधिवासियों के विषय में गंभीर चिन्तन कौन करेगा और कैसे होगा?

महाभारत में राजनीति को सभी धर्मों से श्रेष्ठ कहा गया है। इसका अभिप्राय यही है कि व्यक्तिगत धर्म किसी व्यक्ति विशेष के कल्याण के लिये होता है। जबकि राजधर्म में मानवता के कल्याण के लिये होता है। वेदों में ऋषि कहते हैं कि राजन तेरा व्यवहार और मस्तिष्क ऐसे दीप्तिमान हों कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन प्रकाशमान हो जाए। इस मंत्र में सीधा संदेश है कि राजनीति एक साधना है। इसमें साधक से सिद्ध की यात्रा पूरी करनी होती है। वर्तमान राजनीति को हम ध्येयनिष्ठ राजनीति की परिभाषा में सम्मिलित नहीं कर सक ते। वर्तमान स्वरूप मध्यकालीन सामंतशाही की विस्तारवादी अभिलाषा की भांति है। जब एक राजा दूसरे राजा पर आक्रमण कर इसे नष्ट करना चाहता था, ताकि वह अपने राज्य का विस्तार कर सके। इसमें राजनीति के लोक मंगल तत्व की भावना अनुपस्थित थी। वही व्यवहार और चिन्तन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी दिखाई देता है। विचारों और कार्य योजनाओं पर न तो संवाद है और न ही विमर्श। व्यक्ति वादी कुर्सी रणनीति की तहत राजनीति कार्य करती है।

व्यक्ति विशेष के अपने राजनीतिक समूह है। जो दूसरे समूह को पराजित कर सिंहासन पर कब्जा करना चाहते हैं। यह भावना मध्यकालीन ही है। युद्ध की पद्धति में परिवर्तन है। आज का युग लोकतंत्र का युग है। इसलिये हथियार बदल गये है। अब युद्ध मतशक्ति से होता है। इस मत शक्ति को प्राप्त करने के लिए राजनेता भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रपंच करते है। इसमें समाज के वर्ग विशेष में भयग्रन्थि पैदा करना और सामाजिक समरसता की स्वाभाविक धारा को बाधित करना है। आजादी के बाद जातीयता और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दे अतीत के गर्भ में दफन कर देने चाहिए थे। लेकिन हमारे राजनेताओं ने उसे न केवल जीवित रखा, अपितु पहले की तुलना में अधिक उग्र कर दिया । पहले जातीयता के आधार पर मतदान नहीं होता था। ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता से पहले चुनाव नहीं होते थे। तब भी कुछ सीमा तक लोक तांत्रिक प्रक्रि याओं का पालन होता था। अनेक दल थे। लेकिन मतदान केवल वैचारिक आधार पर होता था।

इतना अवश्य है कि चालीस के दशक के बाद साम्प्रदायिकता ने राजनीतिक आकार ले लिया था, लेकिन चुनाव की राजनीति में उसका प्रत्यक्ष प्रवेश सन् 1946 के चुनाव में हुआ। यह ठीक है कि भारत में आजादी से पूर्व की राजनीति में धनपति समाज का बोलबाला था, लेकिन वही राजनीति लाल बहादुर शास्त्री और बाबू जगजीवन राम जैसे निर्धन परिवारों के संकल्पधर्मी युवकों को नेतृत्व सम्भालने के लिये प्रेरित कर रही थी। श्री शास्त्री के पास तो न धन था और न ही जातीय बल। वे कायस्थ थे। यदि वर्तमान जातीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वे चुनाव जीत ही नहीं सकते थे। उनकी जाति अतिअल्प संख्या में है। केवल एक शक्ति थी उनके पास जो सभी बाधाओं पर भारी पड़ी, वह था आदर्शपूर्ण और त्यागमय जीवन। साथ ही निर्धन वर्ग के प्रति कुछ करने की अतीव भावना।

किसी ने कभी शास्त्री और बाबू जगजीवन राम से जाति नहीं पूछी न ही उन्होंने जातीय राजनीति को संरक्षित किया। वैचारिक संवाद राजनीतिक पटल पर समाप्त हो जाता है तो दिशाभ्रम की स्थिति जन्म लेती है। समाज भी विभाजित हो जाता है। समाज की मन: स्थिति का संचालन जिस विचार शक्ति से होना चाहिए था, जब वह नहीं होता, तो जातीय और साम्प्रदायिक आग्रह प्रबल हो जाते हैं। आस्था प्रदर्शित करने के लिये आधार की आवश्यकता होती है। नागरिकों के मध्य स्वस्थ राष्ट्रीय चिन्तन के विकसित होने में अनेक बाधायें उत्पन्न की गई। आम आदमी समझ ही नहीं पाया कि देश के प्रति उसका दायित्व क्या है। ऐसा उदासीन समाज कुर्सी लोलुप राजनेताओं के लिये बहुत उपयोगी होता है। समाज को दिशाहीन करने के अनेक उपाय किये जाने लगे।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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