झुकने को कहा था- रेंगने लगे

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प्रेस की आजादी से भी बड़ा मुद्दा अभिव्यक्ति की आजादी का है। असलियत में प्रेस और मीडिया की आजादी भी संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत देश के नागरिकों को मिली वाक व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान से है। आज अभिव्यक्ति के साधन जितने बढ़ते जा रहे हैं, खतरा भी उतना ही बढ़ता जा रहा है। इसलिए अभिव्यक्ति की आजादी बचेगी तभी प्रेस की आजादी भी बची रहेगी। तभी अभिव्यक्ति के स्वतंत्र माध्यमों का बढ़ना हुक्मरानों को रास नहीं आ रहा है। उन्हें पता है कि प्रेस और मीडिया को तो काबू में किया जा सकता है पर बेलगाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म को काबू करना मुश्किल है। तभी अलग अलग तरीके से उसे नियंत्रित करने का प्रयास हो रहा है।

ऐसा नहीं है कि यह प्रयास सिर्फ केंद्र की सत्ता में बैठे लोग कर रहे हैं, हर सत्तावान अपने अपने तरीके से यह काम कर रहा है। इसे समझने के लिए दो उदाहरण काफी होंगे। पहला उदाहरण पश्चिम बंगाल का है और दूसरा उत्तर प्रदेश का है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के समय प्रियंका नाम की एक छात्रा ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक मीम बनाया था। उनकी फोटो के साथ छेड़छाड़ करके इसे बनाया गया था। इस पर बंगाल पुलिस ने प्रियंका को गिरफ्तार कर लिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से रिहाई हो पाई। मीम बनाने वाली युवती भाजपा की कार्यकर्ता थी, इसलिए यह बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अगर यह मामला किसी आम आदमी को होता तो शायद इतनी तरजीह नहीं मिलती।

दूसरा मामला उत्तर प्रदेश का है। वहां के योगी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को लेकर एक महिला ने कुछ बातें कहीं, जिसे एक न्यूज चैनल पर दिखाया गया और उसकी बातों का वीडियो लेकर एक पत्रकार ने उसे ट्विट कर दिया। इस ट्विट को लेकर पत्रकार प्रशांत कनौजिया को गिरफ्तार कर लिया गया। उत्तर प्रदेश की पुलिस दिल्ली आकर कनौजिया को गिरफ्तार करके ले गई। इसका प्रसारण करने वाले चैनल के दो पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया और आरोप लगा कि उनका चैनल बिना लाइसेंस के चल रहा है। हो सकता है कि बिना जांच पड़ताल किए चैनल ने खबर चलाई हो, जो पत्रकारिता की नैतिकता के लिहाज से गलत है फिर भी इसके लिए तीन लोगों को गिरफ्तार करने का मकसद भय का माहौल बनाना ही है। यह पूरा मामला सिर्फ मीडिया के लिए चिंता की बात नहीं है, बल्कि अभिव्यक्ति पर एक बड़े खतरे के रूप में इसे देखा जाना चाहिए।

ध्यान रहे जो बड़े मीडिया हाउस हैं और उनके काम करने या चलाने वाले बहुत बड़े पत्रकार हैं वे दूसरे कारणों से हमेशा सत्ता के आगे झुकते रहे हैं। इनके लिए ही लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि इनको आपातकाल के समय झुकने के लिए कहा गया था तो ये रेंगने लगे थे। सो, ऐसे लोगों की चिंता कभी भी हुक्मरानों को नहीं रही है। उनके लिए चिंता की बात ऐसे स्वतंत्र पत्रकार और ऐसे आजादख्याल नागरिक हैं, जिनको इन दिनों डिजिटल मीडिया का हथियार मिल गया है। इसमें बड़ी पूंजी नहीं लगी होती है और इस पर उठाई जाने वाली आवाज की पहुंच भी दूर तक है। इसलिए सत्ता में बैठे लोगों को इसकी भी चिंता करनी पड़ रही है। और तभी इसे भी नियंत्रित करने या इसका इस्तेमाल करने वालों को डराने का प्रयास हो रहा है।

एडिटर्स गिल्ड और प्रेस एसोसिएशन जैसी संस्थाएं इसका विरोध करती हैं, प्रेस रिलीज जारी करती हैं और पत्रकारों पर होने वाले अत्याचार या उनके उत्पीड़न के खिलाफ कभी कभी प्रदर्शन भी होते हैं। पर यह सारे काम किसी घटना के बाद होते हैं। ऐसी घटनाएं न हों, इसके लिए ठोस व सांस्थायिक प्रयास करने होंगे। हालांकि सांस्थायिक प्रयास भी तभी सफल होंगे, जब संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम करेंगी। प्रेस के कामकाज को देखने के लिए भी संस्था बनी है, हालांकि इसकी उपयोगिता भी सवालों के घेरे में है। पर आम आदमी की आवाज दबाने के लिए हो रहे प्रयासों को रोकने का उपाय सिर्फ अदालत है, जहां से न्याय मिलना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निची विचार हैं

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