नित्य लेखन कर्म शुरू करने से पहले एक सुधी कांग्रेस नेता की लिखी प्रतिक्रिया मिली-व्यासजी, आपने जो लिखा उसमें एक नाम भी ऐसा नहीं है जो अपने दम पर नैय्या पार करा सकें, रिसोर्सेस जुटा सकें और सभी कांग्रेसियों को एकजुट रख सकें। राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद संपूर्ण देश में कार्यकर्ताओं के बीच अपना स्थान बनाया है। लोकसभा चुनाव पूरे दमखम से लड़ा है। राहुल गांधी हार्डवर्किग, ईमानदार और अब पूरे देश की राजनीति को समझने वाले युवा नेता है जिसने राफेल, अंबानी को एक्सपोज किया। क्या किसी और नेता में ऐसा दम है?हमें कांग्रेस को फिर से केसरी युग में नहीं ले जाना है। कांग्रेस को युवा और मजबूत नेतृत्व की जरूरत है जो राहुलजी से ही संभव है। जो प्रदेश क्षत्रप, पदाधिकारी फेल हुए है वे इस्तीफा दे। वक्त की यही पुकार है कि सभी राहुल के नेतृत्व में एकजुट हो कर काम करें। आने वाले विधानसभा चुनावों में कड़ी मेहनत करें, कांग्रेस को फिर से जिंदा करें। आपने लोकसभा चुनाव में कमाल का लिखा, मनोबल बनवाया मगर हम उसका उपयोग नहीं कर पाएं। बीजेपी ने झूठा नैरिवट बना कर चुनाव जीता हम उसकी काट नहीं कर पाएं। बिकाऊ मीडिया के आगे हम लाचार है। बिकाऊ मीडिया के रहते हम कैसे राजनीति करें, इसका क्या करें?
एक सच्चे कांग्रेसी का सच्चा मनोभाव। संभव है राहुल गांधी और लुटियन दिल्ली के आला कांग्रेसी नेताओं, कार्यसमिति के सदस्यों व प्रदेश कांग्रेस कमेटियों का भी ऐसा ही मनोभाव हो कि राहुल के अलावा कौन है जो कांग्रेस की नैय्या पार लगा सके? कैसे मीडिया के प्रायोजित नैरेटिव के चक्रव्यूह से बाहर निकल नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आगे राहुल गांधी अपने को खड़ा करें? मतलब कांग्रेस के पास नहीं है कोई अमित शाह जैसा कोई। इसलिए राहुल गांधी के कंधों पर ही मोदी-शाह दोनों का डबल रोल रहे!
यह बात सही भी है तो बच्चे की जान लेना भी है। इससे दो बाते जाहिर होती है। एक, राहुल गांधी ने अपनी मेहनत, नरेंद्र मोदी से आर-पार की लड़ाई की हिम्मत दिखा कर कांग्रेस में अपनी अनिवार्यता बनाई है। दो, कांग्रेस का कण-कण परिवारमय हो गया है। इस मामले में अपना भी मानना है कि नेहरू-गांधी परिवार के खूंटे के बिना कांग्रेस बची नहीं रह सकती है। दोनों हकीकत में हर्ज नहीं है। बावजूद इसके दोनों के खतरे भी है। पहली बात राहुल गांधी के लिए पार्टी अध्यक्ष और नरेंद्र मोदी के आगे विपक्ष का ब्रांड बनने की दोहरी चुनौती में न संगठन के बनने और न नेता का ब्रांड बनने का खतरा रहेगा। दोनों काम एक साथ सधने की कांग्रेसियों की उम्मीद बच्चे की जान लेने का खतरा लिए हुए है।
जान ले कि आज के सिनेरियों में यह आशावाद बनता है कि क्षेत्रिय- जातिवादी पार्टियां खत्म होने की तरफ बढ़ रही है। दो राष्ट्रीय पार्टियों और उनके दो खूंटे पक्के हो रहे है तो इससे लोकतंत्र का आगे भला संभव है। एक खूटा आरएसएस-नागपुर की हिंदू विचारधारा का तो दूसरा गांधी-नेहरू परिवार के आईडिया ऑफ इंडिया का। देश के लोकतंत्र और डेढ सौ करोड़ आबादी के राष्ट्र-राज्य की बेसिक जरूरत है कि ऐसी दो राष्ट्रीय पार्टियां हो जिससे लोगों को एक से सत्ता का भरोसा मिलता रहे तो दूसरे से गुस्सा-भंडास-विद्रोह-तकलीफ-जलालत निकालने की दशा में रोने का कंधा मिला रहे। एक से बहुसंख्यक हिंदू संभले रहे तो दूसरे से मुसलमान- वंचित-पीडित-निराश लोगों का विकल्प रहें। राष्ट्र का हित न शिवसेना-साध्वी प्रज्ञा के कंधे से है और न औवेसी ब्रांड राजनीति से।
बहरहाल मौजूदा मसला क्योंकि राहुल गांधी के दायित्व, चुनौती और विकल्पों की है इसलिए सवाल है कि नरेंद्र मोदी- अमित शाह के आगे क्या अकेले राहुल गांधी अपनी ऊंगली पर विपक्ष का गोवर्धन पर्वत ले कर खड़े रह सकते है. उड सकते है? ऐसा चाहने, सोचने वाले नहीं समझ रहे है कि 1984 के बाद से कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगातार घट रहा है तो एक कारण संगठन की कमी है। हनुमान की कमी है। कांग्रेस में अमित शाह की कमी है। संगठन और नेता का ब्रांड अलग-अलग मसला है। राहुल गांधी और कांग्रेसजनों को समझना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की ताजा जीत का एक बड़ा कारण मतदाताओं में राहुल गांधी की नैगेटिव, पप्पू ब्रांडिग थी। राहुल की ऐसी अस्वीकार्यता सौ टका प्रायोजित थी, बिकाऊ मीडिया और सोशल मीडिया की बदौलत थी लेकिन थी तो सही। इसे काउंटर या इससे पार पाने में जरूरत है तो ऐसा संगठन की ताकत, नेता की ब्रांडिंग की गहरी योजना से ही हो सकता है।
पहली जरूरत पार्टी के मालदारी वसूलने वाले, लुटियन दिल्ली की नेटवर्किंग बदौलत बने नेताओं से संगठन को मुक्ति दिलाने की है। उनकी जमीनी नेताओं, मतलब केवल और केवल चुनाव लड़ कर जीत कर आएं जमीनी नेताओं को हर संगठन के हर लेवल पर बैठाना होगा। इसके लिए खुद राहुल गांधी को भी बदलना होगा। अपना मानना है कि कांग्रेसजनों के बीच अड्डा लगा कर, उनके सुख-दुख, उनके कामों को करके या कार्यकर्ताओं, नेताओं की मनोदशा को बहलाते-फुसलाते- धमकाते कंट्रोल करने के संगठनात्मक कामों में राहुल गांधी सर्वाधिक असहज रहे है। पिछले पांच -दस सालों में सुना जाता रहा है कि राहुल गांधी की पुराने नेताओं से केमेस्ट्री नहीं बनी है और राहुल के आजमाए नए चेहरों से भी रिजल्ट वैसे नहीं आए जैसा सोचा गया था। उस नाते प्रिंयका गांधी वाड्रा की कार्यकर्ताओं से मिलनसारिता, जमीनी टच की चर्चाएं ज्यादा सुनी जाती है। सो एक फार्मूला यह बनता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा संगठन संभाले और राहुल गांधी नेता-विपक्ष बन अपने ब्रांड को पोजिटिव बनाने के मिशन 2024 में आज से ही जुटे। लेकिन पूरी पार्टी भाई-बहिन की कमान से चिंहित हो तो उसकी नकारात्मक बवा भी भारी बनेगी।
बहरहाल राहुल गांधी ने बिजली कडका दी है। इसके दस तरह के असर है। लुटियन दिल्ली के पी चिंदबरम को बेबाकी से राहुल गांधी ने जो कहा उससे पार्टी के सभी सीनियर नेता समझ गए है कि राहुल गांधी हिम्मती, बेधड़क है। एक मायने में राहुल गांधी ने तमाम फन्ने खा सीनियरो को बता दिया है कि भविष्य में पद या बेटों को टिकट दिलाने के मामले में ब्लैकमेल करने की भूल न करें।
इस सबसे कांग्रेस में समाधान क्या बनेगा? जनता के बीच नैरेटिव क्या बनेगा? जनता के बीच राहुल गांधी का ब्रांड क्या रंग पाएगा? तभी अपनी दलील है कि राहुल गांधी ने जब फैसला लिया है कि तो वे किसी न किसी तरीके से उस पर अमल करवा संगठन को बदलवाएं। यदि कोई दूसरा नेता लायक नहीं है तो राहुल गांधी अपने आपको अंतरित अध्यक्ष घोषित करते हुए अपनी देखरेख में तीन महिने में संगठन चुनाव इस शर्त के साथ घोषित करे कि वे अध्यक्ष का चुनाव नहीं लडेगें और तीन महिने के बाद सभी ब्लाक,जिला, प्रदेश कमेटिया, कार्यसमिति निर्वाचित होगी। सभी नेता चुनाव लड़े। सगंठन में तीन महिने बाद कोई मनोनीत नेता नहीं होगा।
ऐसा हो सकना बहुत बहादुरी और दूरगामी नतीजों वाला रोडमैप होगा। कांग्रेस बदलेगी। कांग्रेस वेंटीलेशन से, खंडहरी-जर्जर चेहरों के दौर से तभी बाहर निकली सकती है जब राहुल गांधी भी बेरहमी के साथ डा मनमोहनसिंह, एके एंटनी. चिदंबरम, सैम पित्रौदा आदि सभी सत्तर पार के नेताओं का मार्गदर्शक मंडल बना कर उन्हे वाला बैठाएं। इस काम को बिना किसी फर्जीवाडे, दिखावे के यदि संगठनात्मक चुनाव से करवाते है तो जनता के प्राणु वायु से पार्टी अपने आप वेंटिलेशन से बाहर निकलेगी। कांग्रेस को एक बार जनता के लिए खोला तो जाए तो जनता के लिए भी तब सोचने का बहाना होगा कि वह क्यों न राहुल गांधी को अपना नेता न माने। हां, राहुल गांधी के लिए लोकसभा में नेता-विपक्ष बनने से भी उतने रास्ते नहीं खुलेगें जितने जनता के लिए संगठन को खोलने से बनेगें। नेता-विपक्ष के नाते तो मोदी सरकार दस तरह से राहुल गांधी को उलझाए रख सकती है। लोकसभा का काम भी किसी और को बंगाल के अधीर रंजन चौधरी या उत्तर भारत-हिंदी-भाषी मनीष तिवारी को छोड़े रहना चाहिए।
सो ले कर ले दे कर, घूम फिर कर सबकुछ वापिस राहुल गांधी के पाले में है।
हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं