नरेन्द्र मोदी ने खुद को गंगा पुत्र बताया था। यह 2014 की बात है। तब उन्होंने गंगा को साफ करने का संकल्प लिया और देश ने उस पर भरोसा किया था। लेकिन असल में क्या हुआ? हालांकि हाल के समय में कई अध्ययनों और रिपोर्टों में हकीकत बताई है, लेकिन हर आने वाली रिपोर्ट उतनी ही अहम है। ताजा रिपोर्ट एक अंग्रेजी अखबार में छपी। उसमें अखबार आधिकारिक रिकॉर्ड के हवाले से बताया गया है कि केंद्र सरकार ने 2015 में जब नमामि गंगे मिशन शुरू किया, तब 100 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट प्रोजेक्ट शुरू हुए थे। उनमें से अब तक सिर्फ 10 पूरे हो सके हैं। नमामि गंगे मिशन का मुगय उद्देश्य सीवेज का ट्रीटमेंट और सीवर लाइन बिछाना है, ताकि गंगा में गिरने वाले गंदे पानी से निजात पाई जा सके।
इस काम के लिए कुल 28 हजार करोड़ रुपये जारी किए गए। इसमें 23 हजार करोड़ रुपये केवल सीवेज प्रबंधन के लिए जारी हुए थे। बाकी के पैसे गंदगी की सफाई और घाटों के सौंदर्यीकरण के लिए जारी किए गए थे। लेकिन इस दौरान काम इतना सुस्त रहा कि 28 हजार करोड़ में से महज 6,700 करोड़ रुपये खर्च हुए। गंगा में गंदे पानी की मिलावट सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में होती है। कुल गंदगी का लगभग तीन चौथाई हिस्सा इसी राज्य से गंगा में मिलता है। नमामि गंगे मिशन के शुरू होने के बाद यहां 33 सीवेज ट्रीटमेंट प्रोजेक्ट शुरू हुए, लेकिन इनमें से सिर्फ एक पूरा हो सका है। इस सरकार से पहले उत्तर प्रदेश में कुल 18 प्रोजेक्ट चल रहे थे, जिनमें से 13 पूरे हो चुके हैं। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी सरकार ने गंगा का उद्धार कर दिखाने का दावा किया।
20 हजार करोड़ रुपये शुरुआत में ही जारी भी कर दिए गए थे। लेकिन सिर्फ पैसे जारी कर देना काम पूरा होने की गारंटी नहीं होती। आंकड़ों से ये बात साफ हो चुकी है। मार्च तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक अब तक इस प्रोजेक्ट के लिए कुल 28 हजार करोड़ रुपये जारी हो चुके हैं। लेकिन इसमें से सिर्फ 25 फीसदी धन खर्च किया गया है। ये करीब 6,700 रोड़ होता है। पिछले साल मार्च तक 20 फीसदी धन खर्च हुआ था। नतीजतन, राज्य और केंद्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक गंगा जिस भी शहर से गुजरती है, कहीं भी उसका पानी पीने या नहाने लायक नहीं है। तो यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि गंगा पुत्र ने आखिर गंगा मां के लिए क्या किया?