इसे समझना आसान नहीं है यह लोकतंत्र का संदेह अलंकार है

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कोई अंजान ठकठक होती है तो आमदी स्वाभाविक रुप से यही प्रश्न करता है, कौन है। आज के जमाने में आदमी रोज मिलने वाले तक को पूरी तरह से नहीं पहचान पाता तो दरवाजे के पीछे छुपी शै को कैसे पहचाने। जब आज तक रामविलास पासवान, जया प्रदा, अजित सिंह, हिमाचल वाले सुखराम आदि क नहीं पहचान पाए।

तोताराम प्रायः हमारे बरामदे में विराजमान होने के बाद आता है। कभी-कभी जब दरवाजा खटखटाता है तो हम उसके खटखटाने के तरीके से पहचान लेते हैं। कोई अंजान ठक ठक होती है तो आदमी स्वाभाविक रूप से यही प्रश्न करता है, कौन है। आज के ज़माने में आदमी रोज मिलने वाले तक को पूरी तरह से नहीं पहचान पाता तो दरवाजे के पीछे छुपी शै को कैसे पहचाने। जब आज तक रामविलास पासवान, जया प्रदा, अजित सिंह, अमर सिंह, हिमाचल वाले सुखराम आदि खुद को नहीं पहचान पाए कि उनका खुद का राजनीतिक दर्शन क्या है और उनकी वास्तविक राजनीतिक पार्टी कौन सी है। कौन सा घर असली है जहां वापसी के बाद फिर आवागमन का चक्क र नहीं रहेगा। तोताराम अंदर आते हुए बोला कि इस मैं भी चौकीदार वाली मुहिम जैसे उत्तर से पार नहीं पड़ेगी।

फिर भी तेरा उत्तर आंशिक रूप से सही है। बाहर भी सत्तर पार का टिकट वंचित निर्देशक मंडल का एक सदस्य और अंदर भी सत्तर पार का टिकट वंचित निर्देश मंडल का सदस्य। लेकिन मेरे कन्फ्यूजन को समझे बिना तू मेरे प्रश्न के साथ न्याय नहीं कर सकेगा हमने कहा कि तू प्रश्न के साथ न्याय की बात कर रहा है यहां इतिहास को न्याय नहीं मिल रहा है। वही बेचारा शताब्दियों से आउटर सिग्नल पर खड़ा है। फिर भी अपना क कन्फूयूजन बता। हम कोशिश करेंगे। बोला-कभी-कभी मुझे लगता है मैं दमयंती हूं। मेरा स्वयंवर हो रहा है और मेरे सामने नल का वेश बनाए हुए बहुत से सजे-धजे लम्पट देवता उम्मीदवार बनक र बैठे हैं। पता ही नहीं चलता कि असली नलकी कौन है। कभी लगता है मैं अलीबाबा को पहचान कर उससे अपना खजाना वापिस लेने के लिए भटक रहा चालीस चोरों का सरदार हूं।

वैसे सच यह है कि अलीबाबा ने उनकी गुफा का पासवर्ड पता करके चोरी की थी। अलीबाबा का घर देखकर सरदार ने पहचान के बतौर अलीबाबा के मकान की दीवार पर एक निशान बना दिया। अलीबाबा की चतुर नौक रानी ने वैसा ही निशान सभी घरों पर बना दिया। सरदार कन्फ्यूज्ड। वैसे ही मेरी हालत हो रही है। मुझे चौकीदार और चोरों में फर्क नहीं लगता। गांधी और गोडसे का अंतर गायब होता जा रहा है। कभी लगता है कहीं मैं ही तो चोर नहीं हूं। कभी लगता है चौकीदार हूं। कभी लगता है पीडि़त हूं। कभी लगता है कि हूं ही नहीं। कभी लगता है कि गीता के कृष्ण की तरह मैं ही सबकुछ हूं। क भी लगता है कि मैं हनुमान हूं जो लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए रात में चमकने वाली संजीवनी बूटी लेने के लिए द्रोणाचल गया, लेकिन पर्वत पर सब जगह जलरहे दीयों को देखकरक कन्फ्यूज हो गया।

पूछकर कन्फर्म करने जितना समय नहीं था इसलिए वे पूरा पहाड़ ही उठा लाए। मुझ में इतना बल नहीं है और कुछ भी कन्फर्म करने जितना समय नहीं है। झूठ का शोर इतना है कि सोचना तो दूर सर दर्द से परेशान हूं। हमने कहा कि हे हनुमान, यह कोई बीमारी नहीं बल्कि लोकतंत्र का संदेह अलंकार है। कवि ने एक प्रसिद्ध कविता में द्रौपदी-चीरहरण प्रसंग में दु:शासन की मन: स्थिति के बारे में कहा है कि वह हर तरह से सन्देश और भ्रम का शिकार होता है। जैसे साड़ी की नारी है या नारी की साड़ी है या साड़ी में नारी है या नारी में साड़ी है या केवल नारी ही है या केवल साड़ी ही है। इसी तरह भारत एक खोज से पहले जो मंत्र- पाठ होता है वह भी ऐसे ही है।

रमेश जोशी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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