शब्दों के जंगल में हम एक-दूसरे को काटते थे। भाषा की खाई को हम जुबान से कम, जूतों से ज्यादा पाटते थे। राजनीतिक आलोचना का कोश जिस प्रकार अशोभनीय और आपत्तिजनक शब्दों से आज भर गया है, उससे भाषा की उपयोगिता और उसके सरोकार पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। आचार संहिता लागू होने बावजूद जुबान पर लगाम न कसना प्रमाणित करता है कि व्यक्तिगत टिप्पणियों के घेरे से बाहर निकलने में नेताओं की कोई रुचि नहीं है।
मौजूदा चुनावी माहौल को हिन्दी के विख्यात कवि धूमिल की इन पक्तियों के जरिए पूरी सटीकता से समझा जा सकता है। शब्दों के जंगल में हम एक -दूसरे को क टते थे। भाषा की खाई को हम जुबान से कम, जूतों से ज्यादा पाटते थे। राजनीतिक आलोचना का कोश जिस प्रकार अशोभनीय और आपत्तिजनक शब्दों से आज भर गया है, उसने भाषा की उपयोगिता और उसके सरोकार पर प्रश्नचिह्न लगाया है। आचार संहिता लागू होने के बावजूद जुबान पर लगाम न कसना प्रमाणित करता है कि व्यक्ति गत टिप्पणियों के घेरे से बाहर निकलने में नेताओं की कोई रुचि नहीं है। आकाश की ओर थूक ने और एक -दूसरे पर कीचड़ उछालने को मुगय एजेंडे के र प में पेश कर रहे प्रत्याशी भूल चुके हैं कि भाषा की मर्यादा लोक तंत्र की शुचिता का एक प्रमुख आधार होती है। उनके मुंह से निकला एक -एक शब्द उनके व्यक्तित्व का वजन घटा-बढ़ा सकता है। लेकिन पतनशील संबोधन के जिस धरातल पर खड़े होकर हमारे नेता अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दे रहे हैं, वह निहायत छिछली और ओछी राजनीति का नमूना है।
मर्यादित और अमर्यादित भाषा के बीच बहुत महीन रेखा है। राजनीति की खाई पर खड़े नेता कब इस पार से फिसल कर उप साप चले जाते है, पता नहीं चलता। लेक न संकट तब आता है जब पता रहते हुए भी यह फिसलन जारी रहती है। जैसा वर्तमान में हो रहा है। वैचारिक रक्त पात में एक-दूसरे को पाकिस्तान का एजेंट कहना, सबसे बड़ा गुंडा कहना, खाकी अंडरवियर की बात करना, यहां तक कि मंच से किसी की मां के लिए अपशब्द निकालना एक -दूसरे को काटने और जूता मारने से कम नहीं है। यह दबंग, उत्तेजक और बाजारू भाषा वैमनस्य को बढ़ावा दे रही है। ऐसी शब्दावली सुरक्षा की भावना को जख्मी करती है। लोक तंत्र में नेताओं के भाषणों से ष्लोकष् का गायब होना लोकतंत्र को खतरे के निशान के करीब ले जा रहा है। हते हैं कि भाषा सोच का और सोच व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होती है।
अभिव्यक्ति में चरित्रहनन को प्राथमिकता दिया जाना चौड़ी छाती का नहीं बल्कि नेताओं के संकुचित सोच और बौनेपन का प्रतिबिंब है। राजनेताओं की भाषा में जनता के अगामी जीवन का विजन होना चाहिए। अगर यह माना जाता है कि राजनीति के गलियारों से भाषा की सत्ता तय होती है तो इसमें भी संदेह नहीं कि भाषा के प्रयोग से राजनीति के समीक रण बदल जाते हैं। भाषा चाहे तो तनावपूर्ण चुनाव को तनावमुक्त और तनावमुक्त चुनाव को तनावयुक्त बना सक ती है। यह उसके उपयोग पर निर्भर करता है। आज भाषा के नैतिक और राजनीतिक आयाम पर पुनर्विचार की आवश्यक ता है। क्योंकि चुनाव प्रचार केवल किसी के आने-जाने की आहट भर नहीं है। उस आहट के भीतर लोकतंत्र की गूंज कितनी है। यह भी देखा जाना आवश्यक है। इन सबके बावजूद ऐसी भाषा पर तीली पीटने वाले लोग भारी तताद में मौदूज है।
दरअसल यह माना जाने लगा है कि जनता लच्छेदार और फूल्हड़ भाषा में दिलचस्पी दिखाते है। सवाल है कि क्या ऐसी भीषा एक दिन की उपज है या राजनीति में बड़ते अपराधीकरण ने ऐसी भाषा को प्रचलित बनाया है। क्या हम उस नई पीढ़ी के लोकतंत्र की और बढ़ रहे है। जिसकी भाषा के नए मुहावरे हम आए दिन निजी एफएम चैनल से लेकर इंटरनेट के कार्यक्रमों और फिल्मों में सुनते रहते है। इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए। सवाल यह भी है कि क्या राजनीति में हर उबलती अभिव्यक्ति का उत्तर देना आवश्यक होता है। संयम और सहनशीलता जैसे सिद्धांत अभी इतने निर्बल नहीं हुए है कि अशिष्ट और अमर्यादित भाषा के प्रत्युत्तर के लिए उसी स्तर पर उतरना पड़े। सहज, संतुलित और तार्किक भाषा का चमत्कार अब भी अशोभन वक्तव्य को पस्त करने का मद्दा रखता है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे कोश पर धूल जमती दिख रही है। शब्दों से सामार्थ्य दिखाने की इस होड़ में विकास और सुरक्षा जैसे शब्द मुंह ताक रहे हैं और यह लोकतांत्रिक समाज के रूप में हमारे भविष्य की कोई आशाजनक तस्वीर नहीं पेश करता।
अंजुम शर्मा