कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया है कि उसकी सरकार बनी तो वह देश की जीडीपी का छह फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करेगी। यह बहुत बड़ा वादा है। पर घोषणापत्र जारी होने के बाद से किसी चुनावी सभा में राहुल गांधी या कांग्रेस के किसी दूसरे नेता ने इसका जिक्र नहीं किया। हर सभा में न्यूनतम आय की गारंटी करने वाली योजना न्याय का जिक्र किया जा रहा है। तभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी न्याय योजना को निशाना बना कर छह दशक तक लोगों से अन्याय किए जाने का आरोप लगाया। न तो प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी भाजपा के विमर्श में शिक्षा कोई मुद्दा है और न ही कांग्रेस पार्टी के चुनाव प्रचार में शिक्षा क्षेत्र में बड़े सुधार के लिए की गई क्रांतिकारी घोषणा कोई मुद्दा है। दोनों मान रहे हैं कि यह मुद्दा वोट नहीं दिला सकता है।
देश में आर्थिक असमानता बड़ने का जिक्र तमाम लोग कर रहे हैं पर किसी ने यह समझना जरूरी नहीं समझा कि इस असमानता के पीछे शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की गड़बड़ियां बड़ा कारण है। पिछले तीन दशक में उदारीकरण और खुली अर्थव्यवस्था की सबसे ज्यादा मार अगर किसी क्षेत्र पर पड़ी है तो वह शिक्षा और स्वास्थ्य है। धीरे-धीरे ये दोनों क्षेत्र निजी हाथों में सौंप दिए गए। सबको सम्मान शिक्षा और स्वास्थ्य की एक अघोषित नीति भारत में थी। बहुत कम निजी स्कूल कॉलेज और निजी अस्पताल थे। पर धीरे-धीरे शिक्षा और स्वास्थ्य की सरकारी व्यवस्था खराब होती गई और उसकी बुनियाद पर निजी व्यवस्था फलने-फुलने लगी। पहली बार दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी ने शिक्षा और स्वास्थ्य को मुद्दा बनाया। बजट का करीब 40 फीसदी हिस्सा इन दोनों क्षेत्रों पर खर्च करना शुरु किया। उसका नतीजा है कि पिछले करीब चार साल में स्थिति बदली है।
दिल्ली में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों का प्रदर्शन बेहतर हुआ है। ये दो ऐसे क्षेत्र है, जिन पर सभी पार्टियों को सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए। पर अफसोस की बात हैं कि किसी पार्टी का इस पर ध्यान नहीं होता है। आए दिन खबरे आती है कि देश में शिक्षकों की कितनी कमी है या शिक्षा की गुणवत्ता कितनी खराब है या शिक्षण संस्थानों में बुनियादी सुविधाएं की कमी है। इसी तरह डॉक्टररों की कमी, अस्पतालों की कमी और बुनियादी चिकित्सा सुविधाए, उपकरण आदि की कमी की खबरे भी अक्सर आती हैं। पर इसे ठीक करने की प्रतिबद्धता कोई पार्टी नहीं जताती है। आम लोग भी इसके बारे में नेताओं से नहीं पूछते है। उन्हें या तो सरकार की ओर मिलने वाली खैरात की चिंता रहती है या ध्रुवीकरण कराने वाले भावनात्मक मुद्दों की फिक्र रहती है।
तभी पार्टियां लोगों की राजनीतिक निरक्षता का फायदा उठा कर उन्हें दूसरे हल्के और अगंभीर मुद्दों में उलझाए रखती है। ऐसी ही एक गंभीर मुद्दा पीने के पानी का है। नेताओं को इस बात की चिंता है कि गरमियों में चुनाव प्रचार बहुत मुश्किल हो जाता है। एक खबर के मुताबिक रामविलास पासवान ने इसकी शिकायत करते हुए भाजपा के एक नेता ने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी के कारण चुनाव गरमियों में हो रहे हैं। 2004 में उनकी सरकार का कार्यकाल अक्टूबर में खत्म हो रहा था पर उन्होंने अप्रैल- मई में चुनाव कराया, जिसके बाद यही समय तय हो गया है। पर क्या कोई भी नेता यह विचार करता हुआ दिख रहा है कि गरमियों में लोगों को पानी की कितनी किल्लत झेलनी पड़ती है! अभी गरमियां शुरु नहीं हुई है और मराठवाड़ा में भारी सूखा पड़ने की खबर है। मराठवाड़ा से ह्रदयविदारक खबरें आ रही है। महिलाएं गंभीर बीमारियों के बावजूद मीलों चल कर पानी के लिए जा रही है।
उनकी नाक से खून निकलने लग रहा है पर उन्हें पानी के लिए मीलों चलना पड़ रहा है। पश्चिमी भारत यानी महाराष्ट्र गुजरात, राजस्थान के कई इलाकों से मवेशियों और साथ-साथ लोगों का पलायन भी शुरु हो गया है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बुंदेलखंड का पूरा इलाका अगले कुछ दिन में पानी के लिए तरसता मिलेगा। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और हरियाणा के बीच पानी की जंग छिड़ेगी। तमिलनाडु और कर्नाटक में कावेरी के पानी को लेकर फिर विवाद होगा। पर क्या लोकसभा चुनाव के प्रचार में पानी का मुद्दा बनते कहीं दिखा है। यह शर्मनाक है कि आजादी के 72 साल बाद देश के हर नागरिक को साफ पानी नहीं मिल पाया है। मामूली बात यह पर उत्तेजित होकर सड़क पर उतरने वाले लोग भी पानी के लिए अपने नेताओं का घेराव करते कहीं नहीं दिखते है।
अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं