फाइलें खोती हैं पर होती जरुर हैं

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सबमरीन यदि पानी में चली जाए तो हम यह नहीं कह सकते कि सबमरीन खो गई है, उसी तरह फाइलों का होता है। वे अथाह सागर में कहीं खो जाती हैं, पर वे कहीं होती हैं। वे नष्ट नहीं होतीं। कागज अपने में बड़ी हस्ती है। जब वह फाइल में लग जाता है तो और भी सशक्त हो जाता है।

आज मैंने पढ़ा कि सबमेरीन सौदे की फाइल खो गई है। हो सकता है, खबर छपने तक मिल भी गई हो। जैसे सबमरीन यदि पानी में चली जाए तो हम यह नहीं कह सकते कि सबमरीन खो गई है, उसी तरह फाइलों का होता है। ये अथाह सागर में कहीं खो जाती है, पर वे कहीं होती हैं। वे नष्ट नहीं होतीं। कागज अपने में बड़ी होती है। जब वह फाइल में लग जाता है तो और भी सशक्त हो जाता है। आमदी की जिंदगी बर्बाद हो जाती है, देश बर्बाद हो जाता है, पर उसकी फाइलें बनी रहती है। वे जरूर कहीं होंगी।

यदि वह भटनागर साहब की मेज पर नहीं मिल रही तो वर्मा साहब की मेज पर होगी या मिस्टर चाली सगांवकर के घर पर होगी। वह कहीं अवश्य होगी। हर फाइल के साथ आशावाद नत्थी रहता है। वह फाइल निपटने का न हो, पर फाइल न खोने का अवश्य होता है। जैसे आदमी भीड़ में होता है वैसे फाइल फाइलों में होती है। वह कहीं है। हो सकता है यह अलमारी के ऊपर रखी हो और वहां से अलमारी के पीछे गिर गई हो और यह तब तक गिरी रहे जब तक उसे गिरे रहना है। पूरा दफ्तर उसे ढूंढता रहे, एक-दूसरे से सवाल करता रहे। उनमें वे लोग भी हों जो जानते हैं कि फाइल अलमारी के पीछे गिरी है। पर फाइल खोजने की प्रक्रिया में अलमारी के पीछे खोजने का कोई शस्त्र नहीं है। दूसरे, इस बात पर फाइल नहीं चलती कि फाइल कहां गई। फाइल उसी तरीके से खोजी जा सकती है, जिस तरह फाइल खोजी जा सकती है। उसकी नकल नहीं होती, वह नई नहीं बन सकती। फाइल तो वही रहेगी जो है। गृह विभाग उसे ही जाना है। खोई सबमेरीन अंतत समुद्र की सतह पर आएगी। जिस दिन सचमुच वह फाइल मिलनी ही होगी, उस दिन कालूराम चपरासी उसे अलमारी के पीछे से ढूंढ निकालेगा।

सत्य है। कहते है सत्य सूर्य की तरह होता है। पर जब सत्य सरकारी हो जाता है, फाइलों के अंधकार में क्षितिज के उस पार समा जाता है, तब वह दिखाई नहीं पड़ता। पर वह होता है। जब सत्य भारत में छुप जाता है तब स्वीडन या जर्मनी में चमकने लगता है। सबमेरीन पानी में हो, पर उसके सौदे की फाइल पानी में नहीं है। वह धरती पर है। पर जिस तरह दीवारें खड़ी कर हम इस सुर्य और हवा को नकार सकते हैं, उसकी तरह हम गर्दन हिलाकर फाइल को नकार सकते हैं। आप बड़ी आसानी से कह सकते है, फाइल मेरे पास नहीं है।

अपने वह लतीफा सुना होगा कि एक दफ्तर में जब फाइलें बहुत बढ़ गई तो उन लोगों ने अपने हेड ऑफिस को पत्र लिखा कि इन फाइलों को क्या करें? इस पर एक फाइल चली कि फाइलों का क्या करें। उस पर यह निर्णय हुआ कि सारी पुरानी फाइलों की नकल करके रख लीजिए और मूल फाइलें नष्ट कर दीजिए। इस तरह यह निश्चित है कि फाइलें नहीं मरती। वे चोला बदलकर भी जीवित रहती है। अमेरिका में जब पुरानी फाइलें सार्वजनिक होती है तब कैसी पोलें खुलती है। ताजी फाइलें सार्वजनिक हों तो और खुलें। पर वे छुप जाती है, जैसे चांद बादलों में, खरगोश किसी झुरमुट में, केंचुआ जमीन में। वह खोता है, पर होता है। इसी तरह फाइलें खोती है, पर होती है। दफ्तर इसी भरोसे पर बरसों से कायम है। इसलिए सबमेरीन की फाइल मेलेगी, वह पचास वर्षो, बाद मिले, पर वह मिलेगी। वह ईमानदारी की तरह छूप नहीं जाएगी। बेईमानी की तरह अवश्य कभी प्रकट होगी।

स्व. शरद जोशी
(12 सितंबर 1987 को प्रकाशित लेखक जाने-माने व्यंगकार थे)

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