विजेता को इनाम, बाकियों को ताने !

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तोक्यो में चल रहे पैरालिंपिक खेलों में भारत के खिलाड़ी इतिहास रच रहे हैं। एक ही दिन में स्वर्ण पदक सहित 5 पदक जीतने का भी रेकॉर्ड बना है। मन की मजबूती के बल पर अविश्वसनीय प्रदर्शन कर रहे दिव्यांग खिलाड़ी विश्व पटल पर इस खेल प्रतियोगिता में देश का मान बढ़ा रहे हैं, अपनी पहचान गढ़ रहे हैं।

देश में अलग-अलग श्रेणियों में दिव्यांगों की आबादी 2 करोड़ से ज्यादा है। नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस के 2018 में हुए एक सर्वे के मुताबिक, भारत की 2.2 प्रतिशत आबादी विकलांगता से जूझ रही है। इनमें 36.3 फीसदी दिव्यांग आबादी ही कामकाजी है। अनुमान है कि अगर सरकार ने अगर कुछ ठोस प्रयास नहीं किए तो 2022 तक बेरोजगार दिव्यांगजनों की संख्या 1 करोड़ पार कर जाएगी।

इन्हीं दिव्यांगजनों से निकलकर पैरालिंपिक में जीतने वाले खिलाड़ियों की सफलता वर्चुअल दुनिया से लेकर असल संसार तक हर ओर सराही जा रही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर क्यों कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के बाद ही जिंदगी जीने की सुगमता और सहज स्वीकार्यता उनकी झोली में आती है? किसी भी क्षेत्र में कमाल कर दिखाने के बाद पहचान और मान मिलना उचित है पर आम नागरिक की तरह जीते हुए अनगिनत मुश्किलें उनके हिस्से क्यों आनी चाहिए?

अहमदनगर जिले में एक डॉक्टर के अपनी पत्नी और दो बच्चों को जहर का इंजेक्शन देकर मारने के बाद आत्महत्या का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। यह खौफनाक कदम उठाने से पहले सुसाइड नोट में लिखा कि मेरा बेटा सुन नहीं सकता है। आस-पड़ोस के लोग और रिश्तेदार उसके साथ गलत बर्ताव करते हैं। हम व्यथित और दुखी होकर जान देने जा रहे हैं। हमारे बच्चे का किसी चीज में मन नहीं लगता। उसे ऐसा बर्ताव बहुत बुरा लगता है और अभिभावक होने के नाते हम उसके दुख को और नहीं देख सकते।

विचारणीय है कि अपने परिवेश और समाज की संवेदनहीनता से व्यथित होकर ऐसा कदम उठाने वाले इस प्रतिष्ठित चिकित्सक को गरीबों का डॉक्टर माना जाता था। सुसाइड नोट में अपनी जायदाद दिव्यांगों हेतु काम करने वाली संस्था को देने वाले डॉ. थोराट बहुत कम फीस पर लोगों का इलाज करते थे। अफसोस कि यह एक अकेली घटना नहीं है। कभी परायों का उपहास तो कभी अपनों की उपेक्षा। कभी सरकारी योजनाओं की उलझनें तो कभी समाज के उलाहने।

समझना मुश्किल नहीं कि भारत में जब आम खिलाड़ियों के लिए संघर्षपूर्ण स्थितियां हैं तो शारीरिक अशक्तता से जूझ रहे इन प्लेयर्स के सामने कितनी मुश्किलें आती होंगी। ऐसे में मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों को राज्य सरकारों द्वारा इनाम देना सराहनीय है। एक दिन में तीन पदक जीतने वाले राजस्थान के तीन खिलाड़ियों में स्वर्ण पदक विजेता शूटर अवनी लेखरा को 3 करोड़, रजत पदक विजेता जेवलिन थ्रोअर देवेंद्र झाझड़िया को 2 करोड़ और कांस्य पदक हासिल करने वाले जेवलिन थ्रोअर सुंदर गुर्जर को 1 करोड़ रुपये देने की घोषणा की गई है। टेबल टेनिस में सिल्वर मेडल जीतने वाली भाविना पटेल को भी गुजरात सरकार ने 3 करोड़ रुपए और सरकारी नौकरी देने का ऐलान किया है।

भाला फेंक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने वाले सुमित अंतिल को हरियाणा सरकार ने 6 करोड़ रुपये और डिस्कस थ्रो में सिल्वर मेडल हासिल करने वाले योगेश कथुनिया को 4 करोड़ रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। ऊंची कूद में रजत पदक जीतने वाले हिमाचल प्रदेश के निषाद कुमार के लिए प्रदेश सरकार ने 1 करोड़ के इनाम का ऐलान किया है। सुखद यह भी है कि सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स के जरिए आमजन इनके संघर्ष भरे सफर को जानने में दिलचस्पी ले रहे हैं। इनके हौसले को सराह रहे हैं। उपेक्षा से हार कर भी जीतने वाले हमारे ये खिलाड़ी बाजीगर तो हैं ही।

उम्मीद है कि दिव्यांग खिलाड़ियों को गिनती के दिनों के स्टार बनाने के बजाय हमेशा के लिए समाज की सोच में बदलाव आएगा। पराई धरती पर तिरंगे का मान बढ़ाने वाली उपलब्धियां समाज में दिव्यांगों के प्रति सकारात्मक सोच और स्वीकार्यता को बल देंगी। उनकी कामयाबी को सेलिब्रेट करने का यही जज्बा उनकी जद्दोजहद थोड़ी कम कर सकता है।

मोनिका शर्मा
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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