सन् 2021 की 31 अगस्त की तारीख दक्षिण एशिया और खासकर भारत के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुई है। अमेरिका और नाटो देशों की सेनाओं का अफगानिस्तान से लौटना पश्चिमी सभ्यता का वह फैसला है, जिसके बहुत दूरगामी परिणाम होंगे। अमेरिका ने दक्षिण एशिया को उसके हाल पर छोड़ दिया है। वह आकाश, सेटेलाइट, ड्रोन से भले नजर रखे और आतंकियों को मारे भी लेकिन उग्रवाद की खेती वाले अफगानिस्तान और अगलबगल वाले इस्लामी देशों की सरजमीं पर वह अब भविष्य में सेना नही उतारेगा।
यह भी नहीं सोचना चाहिए कि अमेरिका के हटने के बाद अफगानिस्तान सामान्य देश बनेगा। वह न केवल इस्लामी स्टेट, अल कायदा, तालिबानी, बोको हराम जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठनों का ठिकाना बनेगा, बल्कि असंख्य लोकल, पड़ोसी देशों के आतंकी संगठनों को पैदा करने वाली जमीन होगी। साथ ही वह अफीम, ड्रग्स और भाड़े के लड़ाकों, आतंक का निर्यातक देश होगा। दूसरी तरफ अमेरिका की इच्छा होते हुए भी वह इच्छाशति नहीं बनेगी जो इस्लामी चरमपंथ, अफीम, आईएसआई के लड़ाके पैदा करना अफगानिस्तान में रूके।
हां, अमेरिका वापिस अफगानिस्तान नहीं लौटेगा। अफगानिस्तान और उसके अगल-बगल के इस्लामी देश, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश के चरमपंथी कैसा भी गदर बनाएं, इनमें उग्रवाद की कितनी ही फैटरियां बनें अमेरिका अपने को दक्षिण एशिया के झमेले में नहीं फंसाएगा। इसलिए खैबर दर्रा आगे हिंदू बनाम मुस्लिम बनाम चाइनीज सभ्यताओं के बीच संघर्ष को फैलाने का सेंटर यदि बनता है तो वैसी स्थिति में भारत को दक्षिण एशिया में अकेले अपने बूते लडऩा होगा। इस्लामी उग्रवाद से भारत याकि हिंदू सभ्यता को बचाने की अमेरिका, नाटो देशों की सेनाएं ग्राउंड लेवल पर नहीं लड़ेंगी। उस नाते 31 अगस्त 2021 का दिन भारत की चिंताओं में सौ गुना बढ़ोतरी का होने वाला है। सोचें, अफगानिस्तान में अमेरिका-नाटो देशों की सेनाओं के रहने का सर्वाधिक फायदा किसे था? जवाब है भारत को। आखिर अमेरिका इस्लामी उग्रवाद से निपटने का जहां सैनिक बल लिए हुए है तो साहस भी। पश्चिमी सेनाओं की वापसी के बाद इलाके का मालिक चीन बनेगा। वह अपनी सीमा में इस्लामी आतंकवाद को नहीं घुसने देगा।
चीन के पास जवाब देने की दो टूक बर्बरता है। अपनी सीमा से बाहर वह अफगानिस्तान, आतंकी संगठनों से सौदा कर, पैसा दे कर और बहला-फुसलाकर या सभ्यतागत रिश्ता बना कर या बर्बरता से अपने को सुरक्षित रखेगा। संभव है भारत को टारगेट बनवाने की रणनीति में वह चरमपंथी संगठनों का उपयोग करे। भारत की मुश्किल यह है कि कथित हिंदूशाही से मोदी सरकार सर्वत्र बदनाम है। पश्चिमी सभ्यता के देशों और थिंकटैंक में एलर्जी है तो रूस में भी भारत की चिंता नहीं है। चीन और इस्लामी देशों का रूख कुल मिलाकर भारत की परेशानियां बढ़वाने वाला है। नरेंद्र मोदी-अमित शाह-योगी ने अपने मिजाज, तासीर को लेकर जो नैरेटिव बनवाया है वह इस्लामी जमात में लगभग घर-घर का मसला है। भाजपा-संघ की हिंदूशाही से हिंदुओं का भला भले न हुआ हो लेकिन मध्य, पश्चिम और दक्षिण एशिया के हर औसत मुसलमान में भारत को ले कर जो मनोदशा बनी है उसमें नफरत, खुन्नस और बदला लेने जैसी बातों को मिटाना या घटाना संभव ही नहीं है। नि:संदेह अमेरिका के खिलाफ मुस्लिम नफरत और खुन्नस ज्यादा है। पर अमेरिका और भारत का फर्क यह है कि अमेरिका बातें करने के साथ जंग लड़ता है।
उसने अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादेन को खत्म करके ही दम लिया, जबकि भारत की सच्चाई है कि मुंबई में आतंकी हमले के पाकिस्तानी सरगना आज भी आजाद घूम रहे हैं। सो, दक्षिण एशिया में इस्लामी उग्रवाद की चिंता अब अकेले भारत की है। नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार न तो भारत के असर में हैं और न उग्रवाद-अलगाववाद के मारे हैं। तथ्य है कि श्रीलंका व म्यांमार जैसे बौद्ध देशों ने बिना हल्ला किए वह बर्बरता दिखाई जिसका शोर भी नहीं हुआ और इस्लामी उग्रवाद फुस्स। ठीक विपरीत भारत में शोर और बहाने बेइंतहां लेकिन कश्मीर घाटी से लेकर केरल में इस्लामियत लगातार पांव पसारते हुए और हिंदू-मुस्लिम साझा खाई में बदलता हुआ। पिछले सात वर्षों में हिंदुओं के वोट लेने के लिए मोदी-शाह-योगी ने पानीपत की तीसरी लड़ाई की जैसी जुमलेबाजी बनाई उसकी बारीकी में यदि अब जाएं तो खैबर दर्रे की मौजूदा स्थिति में इतिहास की पुनरावृत्ति का सिनेरियो दिखने लगेगा। या इसकी भारत में कोई चिंता है? या सोचा गया कि काबुल के एयरपोर्ट पर हमले वाले संगठन आईएस-के संगठन में कैसे केरल के लड़ाकों के होने की खबर? लड़ाके दो हों क्या बीस, असल बात है इस्लामी स्टेट के घोर चरमपंथी संगठन में केरल के नौजवान!
जुलाई 2021 में भी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के हवाले खबर थी कि इस्लामी स्टेट के आतंकियों में केरल और कर्नाटक से काफी संख्या हो सकती है। तब केरल में चुनाव था लगा था वोटों की गोलबंदी बनवाने का प्रायोजित नैरेटिव। लेकिन अब सचमुच खबर है कि तालिबान ने बगराम जेल से केरल के 14 लोगों को रिहा किया। ये सभी आतंकी समहू इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान प्रांत, आईएसकेपी में शामिल थे। एक केरलवासी ने 26 अगस्त को काबुल में तुर्कमेनिस्तान दूतावास के बाहर विस्फोट करने की नाकाम साजिश रची। दूसरी खबर में इस्लामिक स्टेट की अलग- अलग ब्रांचों में एक नई ‘विलायाह ऑफ हिंद’ का नाम सुना गया। यह हिसाब मुश्किल है कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान में अब भारत विरोधी कितने चरमपंथी संगठन हैं और आगे कितने बन सकते हैं।
भविष्य में, अफगानिस्तान छोडऩे के बाद अमेरिकी-नाटो देशों की पाकिस्तान पर पहले जैसी नजर नहीं रहेगी। दोनों देशों में भारत के खिलाफ कुकरमुते की तरह कई संगठन बनने हैं। उन्हें पाकिस्तान व इमरान खान हवा देंगे तो काबुल की नई सरकार भी हवा देगी। भारत द्वारा तालिबान को पटाने, मनाने, समझाने का कोई असर नहीं होगा। क्यों भी काबुल की सरकार का पूरे देश पर नियंत्रण नहीं होना है। जो भी राष्ट्रपति बनेगा वह इमरान खान जैसे पाकिस्तानी नेताओं से अधिक चरमपंथी होगा। सोचें, अब 31 अगस्त 2021 के बाद दक्षिण एशिया की भूराजनीति कितनी बदलेगी और उससे आतंक को या बेइंतहां हवा नहीं मिलेगी? भारत को अगले दो-तीन सालों में मालूम हो जाएगा कि काबुल से अमेरिकी सेना के लौटने का दक्षिण एशिया पर कैसा घातक असर हुआ।
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)