पहले खुद को बचाए पाकिस्तान

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तालिबान के शीर्ष नेताओं मुल्ला बरादर और हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी ने कतर एयरफोर्स के विमान से जैसे ही अफगानिस्तान की धरती पर कदम रखा, साफ हो गया कि इस देश में एक नए इस्लामी अमीरात तालिबानी शासन की शुरुआत होने वाली है। काबुल में तालिबान के डिप्टी अनस हक्कानी ने पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और दूसरे नेताओं से मुलाकात की। उन्हें उनकी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त किया। तालिबान के इन कदमों को अपने लिए व्यापक सहमति जुटाने के तौर पर देखा जा रहा है। वह इस बार अपनी एक ऐसी छवि दिखाना चाहता है, जो अधिक मानवीय है।

काबुल पर कब्जे के बाद से ही तालिबान अपनी एक नरम और उदार छवि पेश करने के लिए बेचैन है। ऐसी छवि, जिसके बारे में उसका दावा है कि यह पहले से बिल्कुल अलग है। तालिबान चाहता है कि लोग उस पुराने चेहरे को भूल जाएं, जब सरेआम मौत की सजा दी जाती थी, महिलाओं-लड़कियों के घर से बाहर निकलने पर मनाही थी, बुर्का जैसे शरीर का ही एक अंग बन गया था और लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा तक की इजाजत नहीं थी।

हालांकि काबुल के राष्ट्रपति भवन में तालिबान ने जो पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस की, उसमें संकेत दिए गए कि महिलाओं के साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। सारे अधिकार मिलेंगे उन्हें, लेकिन केवल इस्लामी शरिया कानून के अनुसार। कोई भी शरिया के खिलाफ बोल या लिख नहीं सकेगा। तालिबान की नजरों में यह मुद्दा राष्ट्रीय महत्व का है। इन बयानों से तालिबान की चाल साफ होने लगती है। कुल मामला नई बोतल में पुरानी शराब जैसा है। अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा आने वाले वक्त में इस मुल्क को चरमपंथ और आतंकवाद का सबसे बड़ा केंद्र बना देगा। तालिबानी शासन के साथ सुन्नी उग्रवाद को मिलेगा एक नया जीवन, जो इस्लामिक राज्य इराक और आईएसआईएस से भी बदतर होगा।

तालिबान के पास हथियारों की कोई कमी नहीं है। अमेरिकी फौज अफगानिस्तान की धरती छोड़ते समय अपने पीछे हेलिकॉप्टर, विमान और आधुनिक हथियार, गोला-बारूद छोड़ गई है। एक लंबे समय तक तालिबान इनसे अपनी सुरक्षा कर सकता है। आने वाले समय का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि अमेरिका ने अफगान सेना को तीन लाख आधुनिक हथियारों से लैस किया था। अब यह सब तालिबान के हाथों में है।

तालिबान के इस उदय के साथ सवाल उठ रहा है कि क्या कोई असर जम्मू-कश्मीर पर भी पड़ेगा? या फिर तालिबान का नरम चेहरा वाकई ऐसा ही रहेगा और हमें कोई चिंता करने की जरूरत नहीं? सुन्नी उग्रवाद के उदय का अर्थ निकालें तो मुझे लगता है कि जम्मू-कश्मीर पर पर सीधे तौर पर तुरंत कोई खतरा नहीं है। हां, पाकिस्तान पड़ोस में है और उस पर असर को नकार नहीं सकते। काबुल से जम्मू-कश्मीर का रास्ता पाकिस्तान से होकर ही जाता है। अफगानिस्तान में तालिबान के आतंकी शिविरों में पाकिस्तान से ट्रेनिंग लेने वाले आतंकवादी जम्मू-कश्मीर जाने से पहले रास्ते में अपने ही घर जला सकते हैं।

तालिबानी आतंकियों के हाथ लगा हथियारों का जखीरा, कई देशों के बराबर हैं गोला-बारूद

तालिबानी राज का असर यह होगा कि आने वाले बरसों में पाकिस्तान में सुन्नी और वहाबी चरमपंथ में इजाफा होगा। लाहौर में तहरीक-ए-लब्बैक ने महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा को तोड़ दिया। इसी से समझ सकते हैं कि चरमपंथ किस तरह उबल रहा है। एक और घटना है पाकिस्तान की, जो चरमपंथियों के उभार को बताती है। लाहौर के मिनार-ए-पाकिस्तान में टिकटॉक विडियो बनाने वाली लड़की को सरेआम निर्वस्त्र किया गया, 400 लोगों ने रेप करने की कोशिश की उससे। अफगानिस्तान में तालिबान राज का फल पाकिस्तान को मिलने लगा है। हर गुजरते दिन के साथ वहां के समाज पर इसका असर गहरा होता जाएगा।

आतंकियों को सुरक्षित पनाह देने की शर्त पर पाकिस्तान उनके सामने कई मांगें रखता रहा है। क्या इस बार वह तालिबान के समक्ष अपनी शर्तें रख सकेगा? इस जवाब के लिए पीछे के हालात को देखिए। दोहा वार्ता में पाकिस्तान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहीं पर तालिबान और अमेरिका के बीच समझौता हुआ। अमेरिका ने तय किया कि वह इस साल सितंबर तक अपनी फौजें वापस बुला लेगा। हालांकि इस समयसीमा के दौरान तालिबान ने कई समझौते तोड़ दिए। उसके लड़ाके एक के बाद एक राज्यों पर जबरन कब्जा करते हुए राजधानी तक पहुंच गए। काबुल में आत्मघाती हमले जारी रहे। मासूमों को निशाना बनाया जाता रहा। अगर तालिबान ने दोहा वार्ता की शर्तों के मुताबिक कदम बढ़ाए होते तो पाकिस्तान परिस्थिति का फायदा उठाने की ज़्यादा अच्छी स्थिति में होता। अब अमेरिका भी पहले की तरह उस पर अधिक निर्भर नहीं रहेगा। वैसे पाकिस्तान पर्दे के पीछे से इस तालिबानी शासन में अपना उचित हिस्सा चाहता है।

अगर भारत की बात करें तो वह इस क्षेत्र की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकता। अगर तालिबान के साथ बैकचैनल से बातचीत नहीं चल रही है, तो शुरू करनी होगी। भारत की एक बड़ी आबादी मुस्लिम है और तालिबान इसे नजरअंदाज नहीं करेगा। वह जम्मू-कश्मीर और भारत के दूसरे आंतरिक मामलों में टांग अड़ाने के बजाय भारत से सीधी बातचीत चाहेगा। तालिबान की आधिकारिक नीति है कि जम्मू-कश्मीर एक द्विपक्षीय मसला है। इसी से कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में उसके दृष्टिकोण का पता चल जाता है। यह दृष्टिकोण अब तक भारत के अनुकूल रहा है और लगता नहीं कि अफगानिस्तान में अपने शासन को मजबूत किए बिना तालिबान संघर्ष का कोई नया मोर्चा खोलेगा।

हालांकि इन सबके बावजूद भारत को जम्मू-कश्मीर को लेकर सतर्क रहना होगा। हाल-फिलहाल भले नहीं, लेकिन आने वाले समय में आतंकवाद में वृद्धि देखी जा सकती है। तालिबान के उदय ने जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों में नई ऊर्जा भर दी है। इन संगठनों के अफगानिस्तान में आतंकी शिविर हुआ करते थे। 1990 के दशक में कश्मीर में घुसपैठ करने वाले आतंकियों को मुल्ला उमर के कैंप में ट्रेनिंग मिली होती थी। अफगान और अमेरिकी सेना के खिलाफ पाकिस्तानी आतंकियों के लड़ने के जज्बे को भी तालिबान नहीं भूला होगा।

तो कुल मिलाकर जब तक भारत इस नई स्थिति का विश्लेषण करता है, तब तक तालिबान के सामने भी कई चुनौतियां हैं। उसे समझना होगा कि शासन कैसे करना है और जातीय रूप से बंटे देश को किस तरह एक करके रखा जाए।

आदित्य राज कौल
(लेखक विदेशी मामलों के विश्लेषक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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