हम खुद पहाड़ों में भूस्खलन के दोषी

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कुछ दिन पहले हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में भूस्खलन हुआ। तब पहाड़ी का मलबा सीधे राजमार्ग पर आकर गिरा। दोपहर के व्यस्त समय में अचानक हुए इस हादसे में दो बड़े वाहन मलबे में दब गए। इसकी वजह से तीन लोगों की तत्काल मौत हो गई, और कई लोग मलबों के नीचे दब गए। जैसे-जैसे मलबा हटाने का काम आगे बढ़ा, इस हादसे में मरने वालों की संख्या भी बढ़ती रही। ताजा सूचनाओं के मुताबिक दुर्घटना में मरने वालों की संख्या 20 के पार पहुंच चुकी है। मगर इस घटना की गंभीरता को महज मृतकों की संख्या से नहीं नापा जा सकता और यह कोई अकेली घटना भी नहीं है। तीन हफ्ते पहले इसी जिले में पहाड़ी धंस जाने से एक और बड़ी दुर्घटना हुई थी। हिमाचल और उाराखंड में भूस्खलन की घटनाओं में हाल के दिनों में काफी तेजी आई है और यह कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। प्रकृति से छेड़छाड़ करेंगे तो ऐसी घटनाएं होंगी ही।

ऐसे में एक सवाल यह बनता है कि किन घटनाओं और गतिविधियों को हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कहेंगे और वे किस तरह से भूस्खलन का कारण बनती हैं। इस सवाल के जवाब तक पहुंचने के लिए हमें भूस्खलन के वैज्ञानिक कारणों को समझना चाहिए। भूगर्भ विज्ञान के अनुसार चट्टानें तीन तरह की होती हैं। एक, ज्वालामुखी फटने से भूमि की सतह के नीचे बनकर ठंडी हुई चट्टानें। ये चट्टानें बहुत कठोर और मजबूत होती हैं। दूसरा प्रकार हैरासायनिक प्रक्रिया से बनने वाली चट्टानों का। कर्नाटक, महाराष्ट्र जैसे दक्षिणी राज्यों में ये चट्टानें हैं। इन चट्टानों को ‘बेसाल्ट रॉक’ कहा जाता है। ये चट्टानें भी कठोर होती हैं। तीसरा प्रकार है- कीचड़ या मलबे से बनी चट्टानों का। ये चट्टानें कठोर नहीं होतीं। हिमालय की चट्टानें मलबे से ही बनी हैं। पहले वहां समुद्र था। समुद्र से ऊपर उठे मलबे से हिमालय का निर्माण हुआ है, इसलिए यहां के पहाड़ सीधी चढ़ाई वाले हैं। वहां बहुत

चढ़ाव और ढलान है। ये पत्थर कच्चे हैं। इन्हें ‘सेडिमेंटरी रॉक्स’ कहा जाता है। पहले इन पहाड़ों की ढलानों पर ओक के वृक्षों का जंगल था। ये पेड़ पहाड़ों की मिट्टी पकड़ कर रखते थे। समय के साथ मूल प्राकृतिक पेड़ बड़े पैमाने पर काटे गए। इसके बाद विभिन्न इलाकों में चट्टानें ढहने की घटनाएं बढऩे लगीं। मुझे याद है कि हमने 1980-85 के दौरान प्रत्यक्ष फील्ड वर्क करके रिपोर्टें बनाई थीं। तब भी चट्टानों के खिसकने की घटनाएं बहुत होती थीं। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले से बनने लगी थी। दरअसल, अंग्रेजों के जमाने में इस इलाके में व्यापार बढऩा शुरू हुआ। ओक के पेड़ बड़े पैमाने पर काटे गए। जंगलों का सफाया हो गया। जो पेड़ लगाए गए, वे ओक के नहीं थे। व्यापारिक कारणों से ओक के स्थान पर चीड़, पाइन के पेड़ लगाए गए। ये पेड़ मिट्टी को पकड़ कर नहीं रखते। मगर ये भी साबुत नहीं रह सके। उद्योग-व्यवसाय के लिए उन्हें लगातार काटा जाता रहा।

इन सबसे भूगर्भ की प्राकृतिक संरचना को चोट पहुंची है। यही नहीं, पिछले तीन-चार दशकों में इन पर्वतों पर मनमाने रास्ते बना दिए गए। जगह-जगह हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रॉजेक्ट बन गए। यह इलाका सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील है। इस वजह से सुरक्षा बलों ने भी बड़े पैमाने पर सड़कें बनवाईं। नतीजे के रूप में भूस्खलन और चट्टानें ढहने की घटनाएं बढऩे लगी हैं। उाराखंड के चमोली में फरवरी माह में इसी तरह की घटना हुई थी। वहां भी ओक का जंगल नहीं बचा है। पहाडिय़ां धंस रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में जितने भी छोटे-बड़े ऐसे हादसे हुए हैं, सच पूछा जाए तो उनमें प्रकृति का कोई दोष नहीं है। ये सारी घटनाएं मनुष्य की गतिविधियों के कारण हो रही हैं। हममें प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता नहीं बची है। विकास कार्यों का पर्यावरण और प्रकृति पर क्या असर होगा इस पर विचार ही नहीं किया जाता। हमारी ही गलतियों के कारण इस तरह की गंभीर घटनाएं हो रही हैं।

डॉ. माधव गाडगिल
(लेखक वरिष्ठ पर्यावरणविद और पश्चिमी घाट जैव विविधता विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष हैं। उनकी इस सोच का मूल मराठी से अनुवाद गंगाधर ढोबले ने किया है)

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