महिलाओं को आरक्षण चुनावी सपना

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महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 108 में संशोधन करने के लिए वर्ष 2008 में संसद में यह बिल रखा गया। राज्य सभा में यह बिल 9 मार्च 2010 को पारित हो गया। लोकसभा में इस पर बहस तो खूब हुई पर निहित स्वार्थों के वशीभूत राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर एकराय कायम नहीं हो सकी।

बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 33 प्रतिशत सीटें देने की घोषणा की पहल करके भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को आईना दिखा दिया। इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने महिलाओं को स्वघोषित आरक्षण देकर न सिर्फ महिलाओं के प्रबल पक्षधर होने का दावा मजबूत कर लिया बल्कि दूसरे दलों को भी ऐसा करने के लिए दबाव बढ़ा दिया। हालांकि दूसरे दलों के लिए ऐसी पहल करना आसान नहीं है। महिलाओं के सशक्तिकरण की दलीलें देना और हकीकत में उनको राजनीतिक तौर पर मजबूती देने में कितना फर्क है, यह भाजपा? कांग्रेस की कलई खोलने के लिए काफी है। दोनों ही दल गाहे? बगाहे महिला हितों की पैरवी करते नजर आते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्दे पर दोनों ही एक जैसी भाषा बोलते रहे हैं। दोनों दल इसकी विफलता के लिए एक? दूसरे को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। महिलाओं के आरक्षण का मसला पिछले करीब दस साल से अधूरझूल में हैं।

महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 108 में संशोधन करने के लिए वर्ष 2008 में संसद में यह बिल रखा गया। राज्य सभा में यह बिल 9 मार्च 2010 को पारित हो गया। लोकसभा में इस पर बहस तो खूब हुई पर निहित स्वार्थों के वशीभूत राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर एकराय कामय नहीं हो सकी। पन्द्रहवीं लोकसभा के भंग होने साथ ही यह महिला आरक्षण बिल दफन हो गया। इस बिल में रोड़े अटकाने के लिए राजनीतिक दल एक? दूसरे पर ठीकरा फोड़ते रहे हैं। बहुजन समाजवादी पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने जातिगत हित ढूंढ लिए। महिला आरक्षण में भी दलित और पिछड़ी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण देने की मांग की। इससे महिला आरक्षण के मंसूबों पर पानी फिर गया।

दरअसल इस बिल को कानून बनाने में पुरुषवादी अहम आड़े आ गया। आरक्षण लागू होने का मतलब था कि 33 प्रतिशत पुरुष नेताओं का राजनीति से बिस्तर गोल हो जाना। हालांकि आरक्षण की स्थिति में भी सीटों पर ऐसे नाताओं के परिवारों के ही कब्जे होने की संभावना रहती। इसके बावजूद फायदा महिलाओं का ही होता। बेशक वे राजनीतिक परिवारों से ही क्यों न हों। उनके आने से भी महिलाओं की आवाज को बल मिलता। महिलाएं जितने बेहतर तरीके से महिलाओं के लिए काम कर सकती है, भावना के उस स्तर से पुरुष नहीं कर सकते हैं, सतही तौर पर सभी दल आरक्षण के समर्थन में दिखाई दिए किन्तु हकीकत में महिलाओं के हम में यह त्याग करने के लिए तैयार नहीं हुए।

सत्ता को बपौती समझने वाले नेता इसमें आधी आबादी की भागीदारी के लिए सहमत नहीं हो सके। ऐसा भी नहीं है कि राजनीति करना महिलाओं के बस में नहीं हो। जब भी मौका मिला, महिलाओं ने अन्य क्षेत्रों के साथ इसमें भी परचम फहराया है। आश्चर्य का काम ऐसे राजनीतिक दलों ने किया है कि जिनकी मुखिया महिलाएं हैं। बिल के दफन होने के दौरान सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष है। इससे पहले इंदिरा गांधी लंबे अर्से तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। इसके बावजूद कांग्रेस महिलाओं को आरक्षण देने में कतराती है।

  लेखक
योगेन्द्र योगी

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