स्कूल कब, कहां व कैसे खोलने हैं, इस निर्णय में पैरेंट्स को भी शामिल करें

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बच्चे कब स्कूल जा पाएंगे? सभी कक्षाओं के लिए स्कूल कब खुलेंगे? यह प्रश्न सबको सता रहा है। इस मुद्दे के कई पक्ष और पहलू सामने हैं: दुनिया के ज्यादातर देशों ने स्कूल खोल दिए हैं। हमारे देश में बाज़ार, कारखाने, दफ्तर खोले जा रहे हैं मगर स्कूल अब तक क्यों बंद हैं? कुछ विशेषज्ञों की दलील है कि कोविड का अगला दौर ख़ासतौर पर बच्चों के लिए खतरनाक हो सकता है। ऐसे में आशंकित होना स्वाभाविक है। फिर यह भी सुनने में आता है कि तीसरी लहर की विभीषिका का अनुमान सही नहीं है। तर्क-वितर्क के इस घटाटोप में तसल्ली का सूरज कब निकलेगा? स्कूल खोलने का निर्णय कब और किस आधार पर लिया जाएगा?

भारत के इतिहास में पिछले 20 वर्षों को महत्वपूर्ण मानने की एक वजह है- शिक्षा का अभूतपूर्व विस्तार। 2005 से देशभर में 6 से 14 वर्ष के बच्चों की स्कूलों में नामांकन दर 90% पार कर गई। 2010 के बाद यह 95% से भी आगे निकल गई। इसका श्रेय अनिवार्य शिक्षा प्रावधान के साथ शिक्षा को प्राथमिकता देने की परिवारों की इच्छा को भी जाता है। गौरतलब है कि जब परिवार, समाज और सरकार एकसाथ, एक ही दिशा में चलते हैं तो बहुत बड़ी उपलब्धि संभव है।

महामारी में शिक्षकों ने पूरे साल अलग-अलग ढंग से बच्चों तक शैक्षणिक सामग्री पहुंचाने के प्रयास किए। शिक्षित या अशिक्षित, सभी अभिभावक बच्चों की पढ़ाई में सहयोग करने लगे। स्कूल बंद रहने का यह एक अनपेक्षित, पर सकारात्मक परिणाम रहा। विद्यालय कब और कैसे खोलने के फैसले में क्यों न अभिभावक भी शामिल हों? क्यों न निर्णय की पूर्व तैयारी विद्यालय स्तर पर पालक व शिक्षक मिलकर शुरू करें? कई राज्यों में बड़े पैमाने पर पालक-शिक्षक बैठकें हो रही हैं। उदाहरण के लिए पंजाब के सरकारी स्कूलों में बीते साल से पैरेंट-टीचर मीटिंग हो रही है।

अक्सर इसमें बच्चों की पढ़ाई पर चर्चा होती ह। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दो हफ़्तों से अभिभावकों व शिक्षकों की कक्षावार मुलाक़ात हो रही है ताकि समझ सकें कि बच्चों को स्कूल में सुरक्षित वापस कैसे लाएं। हिमाचल का ‘हर-घर पाठशाला’ कार्यक्रम बीते साल से चर्चा में है। शिक्षक लाहौल-स्पिती जैसे दूर-दराज़ इलाक़े में छात्रों के घर जाकर मदद कर रहे हैं। माता-पिता बच्चों के विद्यालय आने से पहले स्कूल में नियमित आना-जाना शुरू करें, तो इससे न केवल आपसी भरोसा बढ़ता है, बल्कि बच्चों में पढ़ाई में एक-दूसरे की मदद लेने की प्रवृत्ति भी मजबूत होती है।

जहां भी विद्यालय खोलने का निर्णय हो, ज़मीनी स्तर पर इसका नियोजन स्कूल और अभिभावकों पर छोड़ देना चाहिए। हमें गांव या मोहल्ले के स्तर पर सही व सुरक्षित नियोजन करने की क्षमता बढ़ानी होगी। सभी कक्षाओं के सारे बच्चे रोजाना विद्यालय आएं, इस स्थिति तक पहुंचने में समय लगेगा। किसको कब बुलाएं, यह फैसला स्थानीय लोग ही बेहतर कर सकते हैं।

महामारी अभी गई नहीं है। मुमकिन है कि किसी इलाके में हालात बदलें और अचानक फिर स्कूल बंद करना पड़े। ऐसे में सतर्क और तैयार रहना होगा। परिवार व स्कूल का संपर्क जितना क़रीबी और सहयोगपूर्ण होगा, बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को उतनी ही ऊर्जा व ताकत मिलेगी। स्कूल खोलने की तैयारी और विद्यालय आरंभ होने के अवसर पर अभिभावक-शिक्षक गठबंधन का अभिनंदन करना चाहिए। और उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संपर्क व सहयोग कायम रहे और दिन-ब-दिन और मज़बूत होता जाए। पुराना देशगान याद आ रहा है, ‘कदम-कदम बढ़ाए जा..’

रुक्मिणी बनर्जी
(लेखिका प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन से संबद्ध हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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