कोरोना के सबब उच्च शिक्षा पर पड़ेगा प्रभाव

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कोरोना के काल में बहुत कुछ बदल गया। शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव आने के संकेत हैं। हालांकि विश्वविद्यालयों का शैक्षिक सत्र एक अतूबर से शुरू हो रहा है। पर लगता है कि बहुत कुछ बदलाबदला होगा। कोरोना काल में शिक्षण संस्थाएं सूनी हैं। लास रूम में ताले पड़े हैं। प्रयोगशालाओं के बंद होने के कारण उनके उपकरणों पर धूल की मोटी- मोटी परतें जम गई हैं। लाईब्रेरी के दरवाजों को खुले सवा साल से ज्यादा हो गया। स्कूल, कॉलेज बंद होने के कारण आन लाइन लास की बात चली। ये शुरू भी हो गईं और काफी हद तक कामयाब भी रहीं। नर्सरी से लेकर उच्च लास तक की शिक्षा ऑन लाइन होने लगी। पर ये छात्रों की उपस्थिति नहीं बढ़ा सकीं। इनकी उपस्थिति का औसत बहुत कम 30-40 प्रतिशत के आसपास तक ही रहा। परीक्षा का समय आया तो विश्वविद्यालय कॉलेज अंतिम वर्ष की परीक्षा करा रहे हैं। कैंपस खोल रहे हैं। किंतु एशिया का सबसे बड़ा डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम तकनीकि विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश अलग प्रयोग करने जा रहा है। इस में वह अपने लगभग चार लाख छात्र-छात्राओं से आनलाइन परीक्षा लेने जा रहा है।

आगामी 22 जुलाई से प्रदेश के लगभग 500 विद्यालयों के प्रथम सेमिस्टर से अंतिम सेमिस्टर तक छात्र परीक्षा देंगे। कोरोना काल में अब तक अंतिम वर्ष या अंतिम सेमिस्टर को छोड़कर छात्रों के प्रमोट करने की व्यवस्था थी। अंतिम वर्ष की परीक्षा विद्यालय में कराने की व्यवस्था ही रहती थी। यह पहला अवसर है जब छात्र अंतिम वर्ष सहित सभी सत्र की परीक्षा घर से देंगे। कोरोना काल से पहले तकनीकि या अन्य कॉलेज की छात्रों की उपस्थिति 60 प्रतिशत के आसपास रहती थी। अब ऑनलाइन लास में 30 से 40 प्रतिशत के आसपास है। कॉलेज की हालत यह है कि सरकारी कॉलेज में पूरा स्टाफ नहीं हैं। प्राईवेट में है पर योग्य स्टाफ की कमी है। इनमें योग्य स्टाफ न के बराबर है। प्राय: विद्यालय अपने यहां के उन्ही छात्रों को टीचिंग के लिए रख लेते हैंए जिन्हे कहीं जॉब नहीं मिलती। वैसे भी अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों की रूचि विषय का समृद्ध ज्ञान पाना नहीं है। उनका उद्देश्य डिग्री या डिप्लोमा पाना हैए ताकि नौकरी मिल सके। नौकरी के लिए पढऩे वालों की रूचि शार्टकट से आगे बढऩे में ज्यादा रहती है।

कॉलेज में उपस्थिति के नॉर्म्स पूरे करने के लिए खानापूर्ति करके भले ही उपस्थिति 75 प्रतिशत या ज्यादा दिखा दें पर सत्य यह है कि कोरोना काल से पहले भी उनकी हाजिरी 50 से 60 प्रतिशत के आसपास रहती थी। अब या होगी, यह समझा जा सकता है। पहले भी इंटरनल और प्रेटिकल में नंबर गुरू कृपा से मिलते थे। अब तो और अधिक निर्भर हो गए हैं। पिछले कुछ साल में बहुत परिवर्तन हुआ है। ऐसी शिकायत बढ़ी हैं कि प्रेटिकल लेने आने वाले एजामिनर की रूचि परीक्षा लेने में न होकर ‘शेष’ लाभ में रहती है। कई शिक्षण संस्थाओं का स्टाफ बताता है कि अब तो एजामिनर आते ही कह देता है कि मुझे इतना चाहिए। जो बताया गया, देदो और अपने द्वारा बनाई गई छात्रों के नंबर वाली लिस्ट पर हस्ताक्षर करा लो। ऐसे में जब छात्र को पढ़ाई घर से करनी है, इंटरनल और प्रेटिकल में नंबर लेने के लिए गुरु कृपा जरूरी है तो वे कॉलेज यों जाएं?अब तो कोरोना काल ने उन्हें आगे का रास्ता दिखा दिया है।

कोरोना काल में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। समाज में बदलाव आ रहा है तो शिक्षा जगत में भी बदलाव आना स्वाभाविक है। कोरोना से बचाव के लिए छात्रों को विद्यालय आने से रोका जा रहा है। यह कदम उचित भी है। जान है तो जहान है। जानकार कहते हैं कि कोरोना अभी जाने वाला नहीं है। सुनने में आ रहा है कि अब तीसरी लहर आ रही है। अभी और कितनी लहर आएंगी, ये भी नहीं कहा जा सकता। विशेषज्ञ कहते हैं कि डेंगू, वायरल बुखार की तरह ही हमें अब कोरोना के साथ ही जीना होगा। लगता है कि अब धीरे-धीरे कैंपस की महत्ता पर प्रभाव पड़ेगा। लास रूम सूने रहेंगे। कोरोना काल के बाद अतूबर से शुरू होने वाला शिक्षा सत्र बदला-बदला होगा। कैंपस तो बस परीक्षा फार्म भरने का या कभी-कभाक घूमने और प्रेटिकल देने आने के लिए ही रह जाएंगे। दूसरे विश्वविद्यालय के सामने तकनीकि विश्व विद्यालय की परीक्षाएं एक उदाहरण होगीं। शिक्षाविद और अन्य विशेषज्ञ कहेंगे कि जब एशिया के सबसे बड़े तकनीकि विश्वविद्यालय की परीक्षा घर से हो सकती हैं, तो अन्य की यों नहीं हो सकती?

ओपन विश्वविद्यालय अब तक पढाई अपने पाठ्यक्रम की विषयवस्तु भेजकर कराते थे। परीक्षाएं उनके निर्धारित केंद्रों पर होती थीं, अब लगता है कि उनका भी स्वरूप बदलेगा। हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों में वह भी आँनलाइन होने लगें। या- या होगा, यह अभी समय के गर्भ में हैं पर बहुत कुछ बदलेगा। समाज शास्त्र का सिद्धांत है कि जो नस्लें पर्यावरण से समझौता नहीं करतीं, वे डायनासोर की तरह खत्म हो जाती हैं। मानव पर्यावरण से संतुलन करना जानता है। करता रहा है। इसने प्लेग, हैजा जैसी महामारी में जीना सीख लिया, तो वह कोरोना में भी जीना, रहना सीख जाएगा। समय सब रास्ते निकाल देगा। यह भी हो सकता है कि कोई ऐसा मार्ग निकल आए जिससे पढ़ाई के साथ-साथ रोजगार की आवश्यकता की भी पूर्ति होने लगे। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी रही है,अत: हमें आशावान और सकारात्मक होना चाहिए।

अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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