नए मंत्री पानी से सीखें गवर्नेंस के सबक

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मंत्रिमंडल में शामिल दर्जनों चेहरों को मार्केटिंग शुरू करने के साथ, पुराने मंत्रियों के कामों व खामियों की संवैधानिक जवाबदेही भी लेनी चाहिए। सन 1970 के दशक में केएल राव द्वारा सुझाए राष्ट्रीय वाटर ग्रिड को अमल में लाने के लिए सन 2002 में दायर पीआईएल पर 10 साल बाद सुप्रीम कोर्ट का अधकचरा फैसला आया।

तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने फैसले पर कोई कार्रवाई नहीं की। 2014 के आम चुनावों में जीत के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप नदियों को जोड़ने की योजना के लिए मोदी सरकार ने कमेटी का गठन कर दिया। राज्यों और केंद्र सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों वाली इस समिति के सामने सन 2015-16 में तीन सवाल आए- पहला, पानी और नदी, राज्यों के संवैधानिक अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

सन 2011 में अशोक चावला समिति व संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के अनुसार इसे संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत समवर्ती सूची में लाने पर केंद्र सरकार को भी इस पर क़ानून बनाने का हक़ मिल सकता है। संसद से संविधान संशोधन किए बगैर नदियों के सरकारी प्रोजेक्ट को कैसे सफल बना सकते हैं? दूसरा, इस प्रोजेक्ट की थीम के अनुसार ज्यादा पानी वाली नदियों से कम पानी वाली नदियों में पानी ट्रांसफर करना था।

इसके लिए नदियों के 12 महीने पानी की मात्रा व बहाव के आंकड़ों का विश्लेषण जरूरी था। लेकिन सरकारी अधिकारी इस बारे में दशकों पुराने आंकड़ों से काम चला रहे थे। तीसरा, पानी की बर्बादी रोकने के लिए इसका मूल्य निर्धारित करना, जिससे राज्यों को पानी देने के लिए राजी किया जा सके। इन तीन सवालों का जवाब अफसरों के पास नहीं था। इसलिए 168 बिलियन डॉलर यानी लगभग 15 लाख करोड़ की रकम से दर्जनों नदियों को जोड़ने वाले बहुप्रचारित प्रोजेक्ट और गेमचेंजर योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

नीति आयोग की तीन साल पुरानी रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 करोड़ से ज्यादा लोग जल संकट से जूझ रहे हैं। भारत के 21 बड़े महानगरों में अंडरग्राउंड पानी खत्म-सा हो गया है। पानी की क्वालिटी के मामले में 122 देशों में भारत 120वें नंबर पर है। कोरोना काल में कुछ दिन मेडिकल ऑक्सीजन की कमी हुई तो देश में त्राहि-त्राहि मच गई।

यदि नीति आयोग की रिपोर्ट सच साबित हुई तो शहरों की चकाचौंध के साथ गांवों की धड़कन भी ख़त्म हो जाएगी। ठोस कार्रवाई की बजाय सरकार ने 2019 में जल संसाधन मंत्रालय का नाम बदलकर जल शक्ति मंत्रालय कर दिया। सिंचाई की इतनी बड़ी परियोजना परवान नहीं चढ़ी लेकिन सन 2022 तक कृषि की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य सरकारी फाइलों में बरकरार है। ऐसे अनेकों लक्ष्य जो अब हासिल नहीं हो सकते, वो भी सरकारी फाइलों का बोझ बढ़ा रहे हैं।

इन फर्जी लक्ष्यों की वजह से विभिन्न सरकारी विभागों में करोड़ों की संख्या में नौकरी की भ्रामक वैकेंसी भी दिखती हैं। इसलिए खरबों रुपए की चल रही सभी सरकारी योजनाओं के थर्ड पार्टी ऑडिट कराने की जरूरत है, जिससे पता चल सके कि उनसे जनता को सही मायने में कितना लाभ हुआ?

आज़ादी के बाद से पिछले सात दशकों में दिल्ली दरबार में गवर्नेंस की विफलता की हज़ारों कहानियां, पूरे भारत की नियति बन गई है। इस विफलता का दूसरा सिरा छोटे कस्बों और गांवों से जुड़ता है। दिल्ली में ताश के पत्तों की तरह मंत्रियों को फेंटते समय, ऐसे ही दुर्गम स्थान चित्रकूट में संघ के शीर्ष नेतृत्व का विचार मंथन हो रहा है।

भगवान् राम से जुड़ी पौराणिक अनुश्रुतियों वाले चित्रकूट का आज भी विशेष महत्व है। सत्ता के लिए घमासान कर रहे नेताओं को राम और भरत के बीच सत्ता के त्याग से सीख लेने की जरूरत है। चित्रकूट में अत्रि स्थान से निकलकर तुलसीदास के आश्रम के निकट यमुना में मिलने वाली पयश्वनी नदी बहती है, जिसका त्रेता युग में मतलब था दूध की धारा। गाद और जलकुंभी के कारण उस छोटी नदी की अविरलता और निर्मलता ख़त्म हो गई है।

बुंदेलखंड में सरकारी भ्रष्टाचार, अवैध खनन, भूमाफिया के अतिक्रमण और कंक्रीट के जंगलों की वजह से ऐसी अनेक नदियां ख़त्म होने की कगार पर हैं। देश की अन्य नदियों का भी कमोबेश यही हाल है। दिल्ली में जल बोर्ड का पानी पीने लायक नहीं है तो यमुना के पानी के स्पर्श से अनेक रोग हो सकते हैं। पिछले चार दशकों से चल रहे गंगा सफाई अभियान से जुड़े सुप्रीम कोर्ट और सीएजी के दस्तावेजों की रिपोर्टिंग हो तो पानी पर सरकारी विफलता और भ्रष्टाचार के तंत्र का खुलासा हो जाएगा।

नदियों को सिर्फ सरकारी योजनाओं और प्रतीकात्मक आरती से ही नहीं बचा सकते। नदियों के बारे में केंद्र व राज्यों के सभी मंत्रालयों के बीच सही समन्वय के साथ सटीक कानूनी व्यवस्था बनानी होगी। पानी और नदियों से जुड़ी योजनाओं को, जन अभियान के साथ पारदर्शी तरीके से चलाया जाए, तभी देश और संस्कृति दोनों को बचाया जा सकेगा।

जनता को कितना लाभ?
ऐसे अनेकों लक्ष्य जो अब हासिल नहीं हो सकते, वे सरकारी फाइलों का बोझ बढ़ा रहे हैं। इन फर्जी लक्ष्यों से विभिन्न सरकारी विभागों में करोड़ों नौकरी की भ्रामक वैकेंसी भी दिखती हैं। इसलिए खरबों रुपए की चल रही सभी सरकारी योजनाओं के थर्ड पार्टी ऑडिट कराने की जरूरत है, जिससे पता चल सके कि उनसे जनता को सही मायने में कितना लाभ हुआ?

विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और ‘अनमास्किंग वीआईपी’ पुस्तक के लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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