अर्थव्यवस्था के दर्द की दवा क्या है ?

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अगर मिर्जा गालिब कहीं निर्मला सीतारमण की प्रेस कॉन्फ्रेंस सुन रहे होते तो जरूर पूछ बैठते ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?’ आखिर कसर किस बात की है? पैसे का टोटा है? या नीयत ही नहीं है? अगर देश की अर्थव्यवस्था की हालत और सरकारी पैकेज की असलियत समझना हो तो सरकारी आंकड़ों के मायाजाल को छोड़ मिर्जा गालिब की इस ग़ज़ल का सहारा लेना होगा।

देश कोरोना के अंधे कुएं से निकलने के बाद अब आर्थिक संकट की खाई की तरफ बढ़ रहा है। अर्थव्यवस्था रूपी मरीज कराह रहा है, वित्त मंत्री रूपी डॉक्टर सामने खड़ी हैं, लेकिन मरीज की मरहम पट्टी और दवा की बजाय उस पर आंकड़ों के फूलों की बरसात कर रही हैं, उसे कसरत करने की सलाह दे रही हैं, जिम को बेहतर बनाने का वादा कर रही हैं। जनता हैरान-परेशान है। ग़ालिब के शब्दों में: ‘हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार, या इलाही ये माजरा क्या है’ मुश्ताक यानि बहुत व्यग्र, बेजार यानि उदासीन। मजबूर जनता की व्यग्रता और अहंकारी सत्ता की उदासीनता हमारी अर्थव्यवस्था का राजनैतिक सच है।

इस माजरे को समझना आसान नहीं। शायद वित्त मंत्री द्वारा घोषित दूसरे कोरोना राहत पैकेज का मकसद जनता को भ्रम में रखना ही है। टीवी देखने वाले आम आदमी को ढाई सौ करोड़ उतने ही बड़े लगते हैं, जितने ढाई हजार या ढाई लाख करोड़। दरबारी मीडिया की मदद से वित्त मंत्री चवन्नी-अठन्नी की बरसात कर टीवी का पेट भर देती हैं, कराहते मरीज को अफीम की गोली मिल जाती है। जान तो नहीं, फिर वह सत्ता पर वोट निसार करने तैयार हो जाता है।

ऐसे में हम आंकड़ों के जंजाल से बाहर निकल अर्थव्यवस्था के सीधे-सपाट सच का सामना करें। इसका मर्ज सभी जानते हैं। नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा उससे अब तक उबरी नहीं है। जीएसटी को जल्दबाजी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को और झटका लगा। पिछले साल लॉकडाउन ने तो कमर ही तोड़ दी, रही सही कसर दूसरी लहर ने पूरी कर दी।

कुल मिलाकर आर्थिक विकास की गाड़ी लगभग ठहर गई है। लोगों की आय बढ़ने की बजाय करोड़ों परिवार गरीबी की रेखा के नीचे धकेल दिए गए हैं। बेरोजगारी की समस्या भयंकर रूप धारण कर चुकी है, खास तौर पर शहरों में। पिछले 7 साल से महंगाई काबू में थी, अब बेकाबू होने लगी है।

ग़ालिब पूछेंगे: ‘आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?’ जवाब मुश्किल नहीं है। बीमार अर्थव्यवस्था को राहत और इलाज की जरूरत है। करीब आधी आबादी को भोजन की, करोड़ों बेरोजगारों को रोजगार के अवसर की, छोटे दुकानदारों को धक्के से उबरने के लिए सहायता की जरूरत है और बड़े व्यापारियों तथा उद्योगपतियों को भी दोबारा शुरुआत के लिए सब्सिडी व छूट की जरूरत है। खरीदारों की जेब में पैसा नहीं है इसलिए सरकार को किसी तरह से अर्थव्यवस्था में पैसा झोंकने की जरूरत है।

लेकिन वित्त मंत्री राहत और दवा को छोड़कर बाकी सब कुछ कर रही हैं। अगर छह महीने के लिए अतिरिक्त राशन की एक अच्छी घोषणा को छोड़ दें तो पिछले साल घोषित पैकेज की तरह इस राहत पैकेज में भी सरकार ने अपनी जेब में हाथ नहीं डाला। खुद पैसा देने की बजाय सरकार बैंकों से लोन दिलवा रही है। पैकेज में नए-पुराने दावे हैं, पुरानी घोषणाओं का दोहराव है, बिना स्रोत बताए खर्च के वादे हैं, आने वाले सालों में होने वाले जबानी खर्च हैं। अर्थव्यवस्था को जो चाहिए उसे छोड़कर सब है।

शायद ऐसे में ग़ालिब पूछते ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’ लेकिन यह उनकी अपनी नादानी होती। जो बात मुझ जैसे अर्थशास्त्र के आधेअधूरे ज्ञाता को भी समझ आ जाती है, क्या वह बात सरकार के अधिकारियों को और स्वयं वित्त मंत्री को समझ नहीं आती? सरकारी लोग बताएंगे कि वित्त मंत्री नादान तो नहीं हैं, लेकिन मजबूर हैं। क्या करें, सरकार के पास पैसा ही नहीं है। लेकिन वह यह नहीं बताएंगे कि सरकार के पास पैसे क्यों नहीं हैं।

यह छुपा जाएंगे कि जब संयोग से पेट्रोलियम के दाम गिर गए थे उस वक्त सरकार ने भविष्य के लिए कोई कोष क्यों नहीं बनाया? कोरोना से पहले ही रिजर्व बैंक से बचा खुचा पैसा क्यों बटोर लिया? जब सरकार की हालत पतली थी तब बड़ी कंपनियों को टैक्स की छूट क्यों दी? आज भी इस संकट का सामना करने के लिए सरकार अरबपति और बड़ी कंपनियों पर विशेष टैक्स क्यों नहीं लगा रही?

इन कड़वे सवालों का सामना करने पर बात असली मुद्दे पर आती है। ‘हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफ़ा क्या है’। या फिर उनकी वफा किसी और के साथ है। महामारी जनता के लिए संकट का काल है लेकिन कुछ धन्नासेठों के लिए अवसर भी है। सत्ता आमजन के संकट का समाधान ढूंढ सकती है या अरबपतियों के लिए अवसर।

काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
समस्या समझ या संसाधन की नहीं बल्कि राजनैतिक इच्छाशक्ति की है। सत्ता की नीयत अपने आप नहीं बदलती। वह तभी बदलती है जब लोग इन कड़वे सवालों को पूछना सीखें, मुद्दों को अपनी जुबान से उठाना शुरू करें। बकौल ग़ालिब: ‘मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूं,काश पूछो कि मुद्दआ क्या है’।

योगेन्द्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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