हाल ही में सरकार ने सरकार ने विवादास्पद आदेश दिया कि ‘योग्य प्राधिकरण’ की अनुमति के बिना वरिष्ठ अधिकारी, खासतौर पर इंटेलिजेंस समुदाय, अपने ‘डोमेन’ से जुड़ी चीजें प्रकाशित नहीं कर सकते। यहां तक कि उल्लंघन पर पेंशन रोकने की बात भी कही गई। इधर रक्षा मंत्रालय द्वारा युद्ध के रिकॉर्ड जल्द से जल्द सार्वजनिक करने की अनुमति देने की खबर आई ताकि युद्ध के पांच साल के अंदर भारत से जुड़े युद्धों का प्रामाणिक इतिहास लिखा जा सके।
ये दोनों बदलाव बड़ी समस्या की ओर इशारा करते हैं: भारत सरकार में अपारदर्शिता की संस्कृति। पूर्व अधिकारयों के बोलने पर प्रतिबंध के आदेश का संबंध सुरक्षा और इंटेलिजेंस में सरकार की असफलता और गलत नीतियों तथा भ्रष्टाचार के सामने आने से है। रक्षा मंत्रालय का फैसला स्वागतयोग्य है, लेकिन भारत में अब भी सार्वजनिक रिकॉर्डों के प्रबंधन की व्यापक और जवाबदेही पूर्ण व्यवस्था की कमी है। सरकार में पारदर्शिता की व्यापक कमी देश को दो तरीकों से नुकसान पहुंचाती है।
पहला, अपारदर्शिता लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करती है, जिसके लिए जागरूक जनता की जरूरत होती है, जो सरकारी अधिकारियों की सफलताओं-असफलताओं को पहचान सके। मतदाता सरकार को जवाबदेह ठहरा सकें, इसके लिए उन्हें महत्वपूर्ण जानकारियों की जरूरत है। सूचना का अधिकार (आरटीआई) के पीछे यही सिद्धांत था लेकिन विडंबना है कि आरटीआई के साथ ऐसी नीति भी है जो सार्वजनिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक नहीं करने देती।
दूसरा, सार्वजनिक रिकॉर्ड देश के इतिहास, संस्कृति और पहचान को समझने के लिए जरूरी हैं। ये भारतीय इतिहास के संस्थागत स्वरूप हैं, जिन्हें दस्तावेजों, रिकॉर्ड और आर्काइव के रूप में संहिताबद्ध किया गया है। बीते कल के घटनाक्रमों से, आज की चुनौतियों का समाधान करने की हमारी समझ बनती है। सेवानिवृत्त अधिकारियों का मुंह बंद करना इस उद्देश्य को कमजोर करता है।
सार्वजनिक रिकॉर्ड का प्रबंधन लोक अभिलेख अधिनियम 1993 के तहत होता है, जिसका उद्देश्य जनहित में सार्वजनिक रिकॉर्ड का प्रबंधन था। हालांकि मूल विधेयक में कई खामियां अपारदर्शिता बढ़ाती है और साधारण व्यक्ति को सार्वजनिक रिकॉर्ड हासिल करना लगभग असंभव बना देती हैं।
पुरातन वर्गीकरण नियमों से सरकार को रिकॉर्ड सार्वजनिक पहुंच से दूर रखने में मदद मिलती है, उदाहरण के लिए दशकों तक छिपी रही नेताजी की फाइलें। ये नीति तो ऐसी सामग्री भी छिपाती रहीं, जिन्हें किसी और लोकतंत्र में बहुत पहले ही सार्वजनिक कर दिया जाता। जैसे 1962 और 1971 के युद्ध से जुड़े रिकॉर्ड। यहां उल्लेखनीय है कि रक्षा मंत्रालय के नए फैसले से 1962 के चीन युद्ध पर हेंडरसन-ब्रूक्स की रिपोर्ट के सार्वजनिक होने की उम्मीद नहीं है!
सरकार से पारदर्शिता की उम्मीद होनी चाहिए, अपवाद की नहीं। गोपनीय रिकॉर्ड को 20 वर्ष में सार्वजनिक कर देना चाहिए और ये खासतौर पर 21वीं सदी के डिजिटल रिकॉर्ड के रूप में होने चाहिए। हाल में हुए बदलाव हमें ज्यादा खुली और आसान पहुंच वाली सरकार की याद दिलाते हैं।
सरकारी डेटा से ज्यादा व्यापकता से जुड़ने के लिए जनता को प्रेरित करने के मामले में भारत वैश्विक मापदंडों पर बहुत पीछे है। अमेरिका ने एक दशक पहले data.gov नामक सरकारी वेबसाइट शुरू कर दी थी, जो डिजिटाइज्ड डेटा तक जनता की पहुंच बढ़ाती है।
दो वर्ष बाद, 2011 में भारत ने भी अमेरिकी और भारत सरकार के बीच संयुक्त पहल के तहत data.gov.in की शुरुआत की थी, लेकिन इसमें अभी क्रियान्वयन के स्तर पर कभी समस्याएं हैं। जैसे विभिन्न सरकारी एजेंसियों से डेटा एकत्रीकरण और प्रबंधन का कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर।
एक संशोधित लोक अभिलेख अधिनियम की जरूरत है, जो इसे पुनर्परिभाषित करे कि सरकार को उसके डेटा और रिकॉर्ड कैसे संभालने चाहिए। हमें मांग करनी चाहिए कि सरकार याद रखे कि वे जनता की सेवा के लिए हैं, उससे सच छिपाने के लिए नहीं। भारत को ऐसी प्रभावी व्यवस्था की जरूरत है, जो सरकार के काम की निगरानी में जनता की मदद करे। यह लोक अभिलेख अधिनियम में संशोधन का वक्त है।
शशि थरूर
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)