जुलाई 2017 की शुरुआत में, अनुसूचित जनजातियों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने यूट्यूब को अंडमान द्वीप समूह के संरक्षित जारवा जनजातियों से संबंधित सभी अश्लील वीडियो हटाने का निर्देश दिया। यूट्यूब वीडियो, हालांकि ‘जारवा डेवलपमेंट’ जैसे सहज शीर्षकों के तहत थे, किंतु वास्तव में जारवाओं को नग्न, आदिम और अनपढ़ के रूप में चित्रित कर रहे थे।
हमने यूट्यूब को ईमेल किया, जिसमें बताया कि जारवाओं साथ भौतिक संपर्क प्रतिबंधित है और स्पष्ट किया कि उक्त विडियो उनकी अनुमति के बिना बनाया गया, जो उनकी अस्मिता भंग करने जैसा है। हमारे संदेश इधर-उधर होते रहे क्योंकि भारत में यूट्यूब की आधिकारिक उपस्थिति नहीं थी। हमने गूगल इंडिया के प्रमुख को भी लिखा पर संतोषजनक जवाब नहीं मिला।
कुछ दिनों बाद, हमें गूगल इंडिया से लिखित प्रतिक्रिया मिली: ‘यूट्यूब जैसी गूगल सेवाएं, यूट्यूब एलएलसी द्वारा प्रदान की जाती हैं, जो अमेरिका के कानूनों के तहत निगमित और शासित एक कंपनी है… गूगल इंडिया इस संबंध में आपकी सहायता नहीं कर पाएगा।’
यह उदाहरण है कि कैसे सोशल मीडिया बिचौलिए संस्था स्थानीय कानूनों का उल्लंघन करने वाले मामलों में भी सरकारी जांच को चकमा देते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा जारी नए मध्यस्थ दिशानिर्देशों (इंटरमीडिएरी मार्गदर्शिका) द्वारा निर्देशित भारत में निवासी मुख्य अनुपालन अधिकारी और नोडल अधिकारी होने की जरूरत ऊपर वर्णित उदासीनता की पृष्ठभूमि में विशेष प्रासंगिक हो जाती है।
सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर ने सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय स्थायी समिति के समक्ष कथित तौर पर कहा था कि वे भारतीय कानूनों का पालन करेंगे लेकिन केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, गोपनीयता और पारदर्शिता की अपनी कंपनी की नीतियों के ढांचे के भीतर। क्या उनको भारतीय कानूनों को अपनी कंपनी की नीति से अधिक प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए?
ऐसा लगता है कि ट्विटर एक विशेष राजनीतिक दल के कुछ राजनीतिक पदाधिकारियों के ट्वीट्स को चालाकी से मैनीपुलेटेड मीडिया करार कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया और शिक्षाविदों से समर्थन जुटाने की उम्मीद में कि शायद अमेरिकी सरकार हस्तक्षेप करेगी। ट्विटर भूल गया कि अमेरिकी सरकार भी उन्हें अपने कानूनों का उल्लंघन नहीं करने देती।
क्या इसका मतलब यह है कि अगर उनके पास एक अनुपालन अधिकारी हो भी गया तो भी वे अपनी मर्जी से भारतीय कानून की अनदेखी करेंगे? इसलिए अनुपालन करने वाली अन्य संस्थाओं (गूगल, वॉट्सएप आदि) द्वारा स्थानीय कानूनों के उल्लंघन को अपराध से मुक्त करने की याचिका को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। सांप्रदायिक मामलों के इतिहास के प्रकाश में भारत एक संवेदनशील देश है।
किसी भी शब्द, समाचार, तस्वीर या वीडियो का व्यापक सामाजिक और सार्वजनिक प्रभाव हो सकता है, खासकर अगर जानकारी दुर्भावनापूर्ण और भ्रामक है। उपरोक्त के आलोक में, भारत में किसी भी सोशल मीडिया कंपनी को यह कहने के लिए उत्साहित नहीं होने दिया जाना चाहिए कि उनके लिए कंपनी की नीति देश के स्थानीय कानून से अधिक महत्वपूर्ण है। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा वर्तमान में अपनाई जाने वाली बोझिल प्रक्रिया के बजाय, एक नामित नोडल अधिकारी को व्यापक आधार पर सोशल मीडिया कंपनियों के साथ दोतरफा बातचीत का काम सौंपा जाना चाहिए।
राघव चंद्र
(लेखक भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं ये उनके निजी विचार हैं)