पिछले दिनों यूपी राज्य महिला आयोग की सदस्य मीना कुमारी ने अलीगढ़ में कहा कि लड़कियों के मोबाइल इस्तेमाल करने की वजह से उनके खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। वे लड़कों के साथ लंबी-लंबी बातें करती हैं और फिर उनके साथ भाग जाती हैं। उनका तर्क है कि लड़कियों को मोबाइल नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि घरवालों को पता नहीं होता कि वे किससे बात कर रही हैं। यह बताना भी वह नहीं भूलीं कि लड़कियां बिगड़ती हैं तो इसकी जिम्मेदार उनकी मां होती हैं।
इस तरह के बयान अक्सर गांवों या फिर खाप पंचायतों की ओर से सुनने में आते हैं। वहां यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि लड़कियों के जींस पहनने और मोबाइल रखने से उनके साथ अपराध होते हैं। ऐसे बयानों की समाज में निंदा भी होती है। इन बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता, क्योंकि इनके पीछे कोई वैधानिक या प्रशासनिक ताकत या मान्यता नहीं होती। लेकिन इस बार बयान खुद उस संस्था यानी महिला आयोग की एक सदस्य ने दिया है, जिसका गठन ही इसके लिए हुआ है कि वह महिलाओं की सुरक्षा, उन्नति और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए काम करेगा। राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन 1990 में पारित अधिनियम के तहत किया गया है। राज्यों के महिला आयोग भी इसी आधार पर बनाए गए हैं। ऐसे बहुत से मामले हैं, जहां महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों पर पुलिस ने शुरू में कोई कार्रवाई नहीं की और महिला आयोग (राष्ट्रीय/राज्य) की पहल के बाद कार्रवाई हुई।
मीना कुमारी के बयान में कई समस्याएं हैं। बड़ी दिक्कत यह कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए वह महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा रही हैं। वह लड़कियों से कह रही हैं कि उनके खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए पुरुष और पुरुष मानसिकता नहीं, वे खुद जिम्मेदार हैं। इस तरह से वह ऐसी घटनाओं को रोकने में प्रशासन की भूमिका को भी कम करके आंक रही हैं।
गांव ही नहीं, शहरों में भी अक्सर महिलाओं के खिलाफ हुई घटनाओं के बाद इस तरह की बातें समाज और क्रिमिनल पक्ष की तरफ से सुनने को मिल जाती हैं कि दोषी तो महिला ही है, या फिर महिला का भी कुछ दोष है। इसे विक्टिम ब्लेमिंग कहते हैं, यानी जो घटना की शिकार है, उसी से सवाल करके उसे दोषी ठहराने की कोशिश करना। विक्टिम ब्लेमिंग में लड़की के कपड़ों, उसके अकेले बाहर जाने, किसी से बात करने, मोबाइल रखने आदि को जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन जब यह पूछा जाता है कि छोटी बच्चियों के साथ गैंगरेप और मर्डर या चाइल्ड एब्यूज की घटनाएं क्यों होती हैं, तो लोग चुप हो जाते हैं। मोबाइल न रखने वाली बच्चियों के साथ होने वाली हिंसा में विक्टिम ब्लेमिंग का तर्क काम नहीं करता। पूरे कपड़े पहनने वाली महिलाओं के खिलाफ क्या अपराध नहीं होते? दरअसल ये सब पितृसत्ता के बचाव के तरीके हैं।
भारतीय परिवारों में अक्सर देखने को मिलता है कि बच्चों के गलत फैसलों के लिए मां को जिम्मेदार ठहराया जाता है। जैसे किसी लड़की के अफेयर की बातें जब घर पहुंचती हैं, तो घर वाले उसकी मां को दोषी ठहराते हैं कि तुमने लड़की पर नजर नहीं रखी और ज्यादा छूट दे दी। भारतीय परिवारों में, खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह चलन बहुत आम है। परिवार में ये बातें पिताओं के ऊपर कभी उस तरह से दोष की तरह नहीं आतीं।
फिर यह भी भुला दिया जाता है कि किसी भी समाज में युवाओं का व्यवहार बदलता रहता है। अगली पीढ़ी ज्यादा मॉडर्न या ज्यादा प्रोग्रेसिव हो सकती है। युवाओं का व्यवहार आस-पास के अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है, जिसमें स्कूल-कॉलेज से लेकर मनोरंजन के साधन और सामाजिक वातावरण प्रमुख हैं। अगर महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों में प्रशासन और न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारी कड़ाई से निभाते हैं तो इन घटनाओं में कमी आएगी। समाज की भूमिका यह है कि ऐसी घटनाओं में पीड़ित के पक्ष में खड़ा हो और अपराधी के प्रति सहानुभूति न रखे। इस तरह की विक्टिम ब्लेमिंग से समस्या सुलझने की बजाय और उलझेगी।
गीता यादव
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)