असम के नए मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने अपने राज्य के बांग्लाभाषी मुसलमानों से ऐसी अपील कर दी है कि वैसी अपील कोई अखिल भारतीय नेता कर देता तो पता नहीं, कौन- कौन उस पर टूट पड़ता? सरमा ने कहा है कि असम बांग्लाभाषी मुसलमान अपने बच्चों की शिक्षा और संख्या पर ध्यान दें याने दो से ज्यादा बच्चे पैदा न करें। वैसे 2017 में असम सरकार ने यह कानून बना दिया था कि उसकी नौकरी में वही व्यक्ति रह सकेगा और प्रवेश पा सकेगा, जिसके सिर्फ दो बच्चे हों। इसी तरह 2018 से पंचायत-चुनावों में भी वे ही लोग उम्मीदवार बन सकते हैं, जिसके बच्चे दो से ज्यादा न हों। मैं तो समझता हूं कि ऐसा कानून विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों पर भी लागू होना चाहिए और इस पर देश के सभी प्रांतों में अमल होना चाहिए।
लेकिन असम के मुख्यमंत्री के उक्त बयान से काफी गलतफहमी पैदा हो सकती है। लोग यह भी अंदाज लगाने लगेंगे कि यह मुस्लिम-विरोधी नीति है या यह अल्पसंख्यकों पर जुल्म करने की साजिश है। इस शक को इस तथ्य से भी बल मिल सकता है कि 77000 बीघा जमीन से बांग्ला-मुसलमानों को बेदखल करने का अभियान आजकल चला हुआ है। इस सरकारी जमीन पर उनका अवैध कजा हटाया जा रहा है। जबकि असम के मुस्लिम संगठनों का तर्क है कि भाजपा की पिछली सरकार ने स्थानीय असमिया लोगों में से 2 लाख 28 हजार को 2 लाख बीघे से भी अधिक जमीन मुफ्त में बांटी है। इन स्थानीय लोगों के बारे में किसी तरह का कोई विवाद नहीं है। वे हिंदू हों, मुसलमान हों या ईसाई हों–
यदि वे जरुरतमंद हैं तो उन्हें ज़मीन मिलेगी लेकिन बांग्लादेशी शरणार्थी मुसलमानों को लेकर फिलहाल काफी विवाद चल रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ ने इस समस्या को और भी तीखा बना दिया है। जहां तक असम के मुसलमानों को दो बच्चे रखने की अपील का सवाल है, वह मुख्यमंत्री सरमा के मुस्लिम-विरोधी होने का प्रमाण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि यह कानून तो सभी पर समान रुप से लागू होगा। सरमा ने अपना बयान इतनी नरम, सधी हुई और प्रेमल भाषा में दिया है कि उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि वे मुसलमानों के भले के लिए ही ऐसी अपील जारी कर रहे हैं। यदि सरमा कोरोना महामारी के इस दौर में अवैध कजों को हटाने के अभियान को थोड़ा आगे खिसका दें, जो कुछ अनुचित नहीं होगा। यही बात असम के उच्च न्यायालय ने भी कही है।
डा. वेद प्रताप वैदिक
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)