अमेरिका में पिछले साल नवंबर में हुए राष्ट्रपति चुनावों में प्रचार का दौर वैसा रोमांचक, नाटकीय और यादगार नहीं रहा, जैसा मतों की गिनती का आम तौर पर औपचारिक माना जाने वाला दौर। लेकिन सबसे ज्यादा हैरतअंगेज रहा चुनाव नतीजे घोषित होने के बाद संसद की बैठक में जीत-हार के फैसले पर मुहर लगाने वाला पल। जिस तरह से ट्रंप समर्थकों की बेकाबू भीड़ कैपिटल बिल्डिंग के अंदर घुस आई और तोड़फोड़ मचाते हुए चुनाव नतीजों की पुष्टि की औपचारिक प्रक्रिया को रोकने की कोशिश की, उसने सबको सकते में डाल दिया। यह घटना किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक कही जाएगी। अमेरिका में भी पक्ष और विपक्ष दोनों इस बात पर सहमत हैं कि इस घटना ने एक लोकतंत्र के रूप में उन्हें पूरी दुनिया के सामने शर्मिंदा किया।
बावजूद इसके, पिछले दिनों सीनेट में कैपिटल हमले की द्विदलीय जांच का प्रस्ताव गिर गया। प्रस्ताव को पास होने के लिए साठ वोट चाहिए थे, लेकिन इसके पक्ष में 54 ही वोट पड़े। हालांकि छह रिपब्लिकन सांसदों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठते हुए प्रस्ताव के पक्ष में वोट डाले, लेकिन यह काफी नहीं हुआ। पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी को यह मंजूर नहीं था कि इस घटना की द्विदलीय जांच करवाई जाए। वैसी ही जांच जैसी 9/11 यानी 2001 में 11 सितंबर को हुए ट्विन टॉवर हमले की हुई थी। हालांकि एक तरह से देखा जाए तो कैपिटल बिल्डिंग पर हुआ हमला 9/11 से ज्यादा गंभीर था। 9/11 एक आतंकी वारदात थी जिसे उन बाहरी लोगों ने अंजाम दिया था जो अमेरिका से नफरत करते थे, उसे बर्बाद करना चाहते थे। इसके उलट कैपिटल हमले में वे लोग शामिल थे जो खुद को दूसरों से ज्यादा अमेरिकी मानते हैं। इस बात की प्रबल संभावना है कि देश की संसद पर हुए उस हमले से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों का बड़ा हिस्सा अब भी इस काम को सही मान रहा होगा। इसका मतलब यह भी है कि मौका मिलने पर इस कृत्य को दोबारा अंजाम देने में उसे कोई संकोच नहीं होगा।
इसीलिए यह ज्यादा जरूरी था कि कम से कम इस सवाल पर देश की राजनीति बंटी हुई न दिखे। प्रस्तावित द्विदलीय जांच का यही फायदा था। जांच तो अब भी होगी। डेमोक्रैटिक पार्टी की अगुआई में हाउस कमिटी इसकी जांच करेगी। लेकिन दोनों दलों की संयुक्त जांच की रिपोर्ट का जो असर होता, वह इस जांच का नहीं हो सकता क्योंकि रिपब्लिकन पार्टी इसके निष्कर्षों से खुद को आसानी से अलग कर लेगी।
वैसे देखा जाए तो द्विदलीय जांच के लिए राजी होने में ऐसी कोई मुश्किल भी नहीं थी। नीतियों पर तो कोई बहस थी नहीं। पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप हों या रिपब्लिकन पार्टी उनकी नीतियां अपनी जगह हैं। किसी को पसंद आए या न आए, अपनी नीतियों पर टिके रहने, उनका पूरी ताकत से बचाव करने का उनका अधिकार अक्षुण्ण ही रहने वाला था। यहां तो बात अराजक भीड़ के उस व्यवहार की थी जिसका किसी भी सूरत में बचाव नहीं किया जा सकता। पार्टी इसका बचाव कर भी नहीं रही। फिर उस पर दो टूक स्टैंड लेने में रिपब्लिकन पार्टी को क्यों दिक्कत हुई? अमेरिकी राजनीति पर नजर रखने वाले इसका एक बड़ा कारण पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दबाव को बताते हैं। ट्रंप पहले ही सार्वजनिक तौर पर द्विदलीय जांच के लिए आयोग बनाने का विरोध कर चुके हैं। वह इसे ‘ट्रैप ऑफ डेमोक्रैसी’ यानी लोकतंत्र का जाल कह रहे हैं। रिपब्लिकन पार्टी के कई नेताओं ने कमिशन बनाने की जरूरत से सहमति जताने के बाद अपना रुख बदला।
साफ है कि राष्ट्रपति पद से हटने के बावजूद ट्रंप का जादू मिटा नहीं है। वह अपनी एक अलग पार्टी बनाने की बात भी कह चुके हैं। हालांकि अमेरिकी चुनाव प्रणाली की विशिष्टता को देखते हुए वहां किसी तीसरी पार्टी के लिए खास गुंजाइश नहीं मानी जा सकती, लेकिन इससे इतना तो पता चलता ही है कि ट्रंप को अपने सपोर्ट बेस की ताकत पर पूरा भरोसा है। यही ताकत उन्हें रिपब्लिकन पार्टी में प्रासंगिक बनाए हुए है। उनके समर्थकों का समर्थन पाने का मोह रिपब्लिकन पार्टी को उस अपराध के खिलाफ मजबूती से खड़ा होने से रोक रहा है, जो खुद उसके मतानुसार भी लोकतंत्र और संविधान पर धब्बा है।
और यह सपोर्ट बेस कैसा है जो एक नेता की कुर्सी बचाने के लिए नियम, कानून, संविधान और लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने में भी संकोच नहीं करता? उसके गद्दी से उतरने के बावजूद हर संभव तरीके से उसकी तरफदारी करता रहता है?
समस्या अमेरिका तक सीमित नहीं है। दुनिया के तमाम बड़े लोकतंत्रों में ऐसे नेता मजबूत हो रहे हैं जो खास वोटर समूहों को इस बात का यकीन दिलाने में सफल होते हैं कि नीति, नियम, नैतिकता कुछ भी कहे, वे उस समूह का समर्थन करते रहेंगे, उसके हितों की रक्षा करते रहेंगे। नतीजा यह कि वह खास समूह उस नेता को इस कदर अपना मान बैठता है कि सच-झूठ और सही-गलत से जुड़े सारे सवाल अप्रासंगिक हो जाते हैं। मायने रखता है तो बस यह कि कोई काम, फैसला या प्रस्ताव उस खास नेता के हक में है या उसके खिलाफ।
ओछेपन से खतरा
दिक्कत यह है कि लोकतंत्र का भविष्य आम वोटर की विवेकशीलता, समझदारी और ओछे हितों से ऊपर उठने के उसके जज्बे पर निर्भर करता है। इसलिए महज चुनावी जीत-हार लोकतंत्र के भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं करती। ऐसे नेता की एक हार, भविष्य में उसकी या उसी जैसे किसी दूसरे नेता की और बड़ी जीत का आधार बन सकती है। हर हाल में जीतने की पार्टियों व नेताओं की जिद इस खतरे को बढ़ाती है जैसे कि अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का ताजा रवैया बढ़ा रहा है। बहरहाल, जैसा कि ऊपर कहा गया है, खतरा सिर्फ अमेरिका में नहीं है। यह ट्रेंड आज पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है।
प्रणव प्रियदर्शी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)