फखरुद्दीन अली अहमद एक मिसाली राष्ट्रपति

0
619

हिंदुस्तान की सरजमीं पर एक से एक दानिशवर सियासतदान हुए हैं। उन चुनिंदा सियासतदानों में एक नाम डा. फखरुद्दीन अली अहमद का भी है। फखरुद्दीन अली अहमद आजाद हिंदुस्तान के पांचवे राष्ट्रपति(1974- 1977) थे। यह बात दीगर है कि हिंदुस्तान के सबसे ऊंचे ओहदे पर काबिज रहने के बावजूद उन्होंने अपनी सादगी और पेशेवर अंदाज को कभी नहीं छोड़ा। डा. फखरुद्दीन एक आला दर्जे के सियासतदान होने के साथ साथ एक काबिल वकील भी थे और उस दौर में उनकी वकालत का लोहा सारा जमाना मानता था। उन्हें इतना ऊंचा मुकाम अनायास ही नही मिल गया, 1942 के गांधी जी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें कई साल जेल की सलाखों के पीछे भी रखा था। डा. फखरुद्दीन अली अहमद तो उस वक्त राष्ट्रपति हुए जब देश में एक ही हस्ती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी। उनके समय में फखरुद्दीन अली ऐसा एक काम कर गए कि उनका नाम भूले नहीं भूलता। पुरानी दिल्ली के हौज काजी में 13 मई 1905 को पैदा हुए देश के पांचवे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद अपने जमाने के मशहूर वकील थे। उनके पिता कर्नल डाक्टर जैलनुर अली अहमद असम के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने मेडिकल साइंस की पढ़ाई में एमडी किया था।

फखरुद्दीन की वालिदा लोहारू के नवाब की बेटी थीं। फखरुद्दीन की शुरुआती पढ़ाई गोंडा में हुई, ग्रेजुएशन दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पूरा हुआ। फिर वह इंग्लैंड के कैंब्रिज शहर में लॉ की पढ़ाई की। इस दौरान उनकी मुलाकात और दोस्ती नेहरू से हुई। भारत वापस लौटकर फखरुद्दीन ने वकालत शुरू की। साथ ही अपने गृहप्रांत असम में कांग्रेस के आंदोलन से भी जुड़ गए। जल्द ही वह स्टेट काउंसिल के लिए चुने गए। 1937 में देश के कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं। असम में गोपीनाथ बारदोलाई की सरकार में मंत्री बने। राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर कांग्रेस दो फाड़ हो गई। कयुनिस्टों के समर्थन से इंदिरा ने सरकार बचा ली। नई पार्टी बनी, जिसका नाम रखा गया कांग्रेस आई से इंदिरा अंग्रेजी में फखरुद्दीन अभी भी नेहरू की बेटी के साथ थे। 1972 के चुनाव में वह फिर पहले सांसद और फिर मंत्री बने। ऐसे वक्त में इंदिरा गांधी ने 1974 में फखरुद्दीन अली अहमद को देश का राष्ट्रपति बनाया। फिर साल आया 1975ण् सरकार विरोधी आंदोलन तेजी पकड़ चुका था।, तभी इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फैसला आया। जून के महीने में। जस्टिस सिन्हा ने ये फैसला सुनाया। याचिका थी विरोधी दल के एक नेता राजनारायण की। शिकायत यह की इंदिरा गांधी ने लोकसभा के चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया। फैसला इंदिरा के खिलाफ आया। उन्होंने लोकसभा के सांसद के पद से हटने को कहा गया। सबकी सहमति बनी कि विपक्ष के आंदोलन को कुचलने का एक ही तरीका ह।

आंतरिक शांति भंग होने का हवाला देते हुए देश में इमरजेंसी लागू करने की संस्तुति की जाए। 25 मई को इंदिरा के दस्तखत से एक नोट राष्ट्रपति भवन पहुंचा। और रात में ही फखरुद्दीन अली अहमद ने उस पर दस्तखत कर दिए। सलाह ज्यों की त्यों नहीं मानी गई। एक बदलाव भी किया गया। आर्टिकल 352 के सेक्शन एक के तहत देश में इमरजेंसी लग गई। इसके लिए जरूरी कैबिनेट मीटिंग भी 26 जून को हुई। सुबह के वक्त इंदिरा गांधी के निवास पर फैसले से ज्यादातर मंत्री भी सकते में थे। सरकारी नीतियों को जबरन लागू करने और सेंसरशिप का दौरान फखरुद्दीन अली अहमद को जल्द समझ आ गया कि उनके हाथों कांड हो गया है। कुछ ही वक्त बाद उनकी इंदिरा और उनके बेटे से ठनाठनी होने लगी।संजय गांधी ने सार्वजनिक रूप से राष्ट्रपति के लिए अशोभनीय टिप्पणी कीं। और इसकी वजह यह थी कि फखरुद्दीन अली अहमद ने संजय की पत्नी मेनका की मैगजीन सूर्या के लिए एक लेख लिखने से मना कर दिया था। फखरुद्दीन के पास नसबंदी को लेकर हुए अत्याचारों का भी लगातार हाल पहुंच रहा था। मगर वह अपनी संवैधानिक बंदिशों में बंधे थे। 11 फरवरी 1977 के दिन राष्ट्रपति भवन में गिर गए। अस्पताल ले जाए गए। पता चला कि उन्हें दिल के दो दौरे पड़े जिससे देहांत हो गया।

सौरभ द्विवेदी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here