एक नदी किनारे चार व्यक्ति नाव में से उतरे। चारों दार्शनिक, बुद्धिमान और विद्वान थे तो तार्किक भी थे। नाव से उतरकर चारों ने चर्चा की कि इस नाव की मदद से हम नदी पार कर पाए हैं। इस नाव को हम कैसे छोड़ सकते हैं? कायदे की बात है जो हमारे काम आया है, हमें उसके काम आना है। इसलिए अच्छा तो ये होगा कि हम नाव पर चढ़कर आए हैं तो अब हमें नाव को धन्यवाद देने के लिए हमें इसे सिर पर उठा लेना चाहिए। चारों व्यति नाव को सिर पर उठाकर वहां से चल दिए। रास्ते में काफी लोग उन्हें देख रहे थे। सभी सोच रहे थे कि ये लोग बहुत बुद्धिमान हैं या मूर्ख हैं। लोग आपस में बात करने लगे कि ऐसा तो पहली बार देखा है। किसी व्यति ने उनसे इसकी वजह पूछी। दार्शनिक लोगों ने कहा कि हम नाव के प्रति आभार व्यत कर रहे हैं। इस नाव ने हमें नदी पार करवाई है, अब हम इसे सिर पर रख रहे हैं।
पहले हम इसकी सवारी बने, अब ये हमारी सवारी बनी है। आभार तो व्यत करना ही पड़ता है। ये पूरी घटना बुद्ध और उनके शिष्य देख रहे थे। सत्संग चल रहा था। शिष्यों ने बुद्ध से कहा, कि इस घटना के बारे में आपकी या राय है? बुद्ध बोले कि ये इन लोगों की सोच है। इस पर हम कुछ नहीं कह सकते हैं, लेकिन इस घटना से हमें एक सीख मिलती है। लोग अपनी साधना को, अपनी चीजों को इस तरह पकड़ लेते हैं कि अपना लक्ष्य ही भूल जाते हैं। नाव एक साधन है। एक साधन के बाद आपको अपनी मंजिल तक जाना है, लेकिन आप साधन को पकड़कर बैठ गए। ये सही नहीं है। इस वजह से हम लक्ष्य तक पहुंच नहीं सकते हैं। हमारे आसपास जो भी सुख- सुविधा की चीजें हैं, उनका उपयोग करें, लेकिन उनका मोह न रखें। वस्तुओं का उपयोग करने के बाद उन्हें छोड़कर लक्ष्य की ओर आगे बढ़ जाना चाहिए।