भारत आज ऑक्सीजन से लेकर मास्क, ऑक्सीमीटर और वैक्सीन तक तमाम चीजों के लिए बड़े देशों से मदद मांग रहा है। जब ये चीजें विदेश से यहां आएंगी तो तमाम केंद्रीय मंत्री खुशी से ट्वीट कर रहे होंगे। अभी कुछ सप्ताह पहले तक वे इस संभावना को बड़ी नफरत से खारिज कर रहे थे कि हमारे ‘न्यू इंडिया’ को विदेशी मदद की जरूरत पड़ सकती है। वास्तव में इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि इस भयानक राष्ट्रीय आपदा में सरकार ने विदेश से मदद लेने का फैसला किया है।
हमारी आज जो हालत है उसमें इमरान खान और शी जिनपिंग भी उदारता से मदद करने को आगे आ रहे हैं तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप अंधी गली में पहुंच गए हैं। वे जो संदेश दे रहे हैं उसे समझिए। एक हमसे कह रहा है कि हम जो दिखावा करते रहे हैं, दरअसल हम उतनी बड़ी ताकत नहीं हैं। दूसरा हमें संरक्षक वाली मुद्रा में एहसास करा रहा है कि इस क्षेत्र में हम कहां खड़े हैं।
जरूरतमंद देश की मदद की पेशकश करने के लिए और मदद मांगने के लिए भी बड़ा दिल चाहिए। जानलेवा दलदल में फंसे होने पर भी अगर आप बड़ा दिल और खुला दिमाग रखते हैं, तो यह सब थोड़ा पहले ही अगर हम दिखा पाते तो क्या नुकसान हो जाता? खासकर तब, जब हम वायरस पर फतह पा लेने के दावे कर रहे थ? जब हम केवल 1.5% आबादी को ही वैक्सीन दे पाए थे तभी प्रधानमंत्री ने दुनिया में ऐलान कर दिया था कि भारत ही उसका दवाखाना है।
भारत में वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादक सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को अगर विदेश से मिले ऑर्डर पूरे करने की इजाजत दी जाए या हमारी सरकार कुछ मित्र देशों को वैक्सीन भेंट में देकर ‘वैक्सीन मैत्री’ की बातें करें तो हम इसका स्वागत करेंगे। बड़े देशों को ऐसा करना भी चाहिए लेकिन तभी जब अपनी हालात पर भी गौर करें और ऐसा न हो कि वे जो चीज भेंट में दे रहे हैं उसी की तलाश में दुनियाभर के चक्कर लगा रहे हों। तथ्य यह है कि हम वैक्सीन बाहर तो भेजते रहे मगर दो शानदार घरेलू कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑर्डर नहीं दिए। यह अति आत्मविश्वास का ही प्रदर्शन था।
अब हमारे सामने खुद का खड़ा किया हुआ तूफान है। वैक्सीन की कीमतों में अंतर का भ्रामक जोड़तोड़ है जिसमें केंद्र अलग कीमत देता है, तो राज्य अलग कीमत देते हैं। जब तक सरकार के पास पर्याप्त खुराकें उपलब्ध हैं तब तक मुझे फर्क नहीं पड़ता कि निजी क्षेत्र क्या कीमत मांग रहा है या दे रहा है। सरकार को काफी पहले दोनों उत्पादकों की मांग पर अच्छा-खासा अग्रिम भुगतान करना पड़ा था। काश यह फैसला समय पर किया गया होता। और अंततः, हमारे पास पर्याप्त खुराकें हैं नहीं।
नेतृत्व का प्रभाव ऊपर से नीचे तक जाता है। नेता जितना सफल होता है, उसका असर नीचे तक उतना मजबूत होता है। समय से पहले जीत की घोषणा, उसका जोश उसकी टीम के दिमाग में घुस जाता है। इसीलिए कोई यह जांचने की जहमत नहीं उठाता कि वैक्सीन, ऑक्सीजन, रेमडिसिविर का पर्याप्त भंडार है या नहीं। कोई ऐसा बड़ा देश नहीं बचा जहां दूसरी लहर नहीं आई है।
दिल्ली में संक्रमण दर 0.23% से कोई रातोंरात 32% पर नहीं पहुंच गई। बड़े नेता चुनाव जीतने में व्यस्त रहे। केरल और महाराष्ट्र में महामारी के विस्फोट के बाद भी कोई नींद से नहीं जागा। अगर हम उम्मीद कर रहे थे कि राज्यों की हमारी सीमाएं हमें वायरस से महफूज रखेंगी, तो हम खुद को नरसंहार के लिए ही प्रस्तुत कर रहे थे। और भारत को उस संकट में डाल रहे थे जिसके चलते उसे चार दशक बाद विदेशी सहायता की जरूरत पड़ गई।
कैसे हुई यह हालत?
विजेता वाले हमारे तेवर अभी ढीले नहीं पड़े हैं। ऐसा होता तो हम इस गंभीर संकट के बारे में विदेशी मीडिया में आ रही खबरों के खिलाफ अपने आला राजनयिकों द्वारा शिकायत करवाकर खुद को शर्मसार न करते कि हमारी यह हालत कैसे हुई, जबकि हम उन्हीं देशों से इस संकट में सहायता भी मांग रहे हैं।
शेखर गुप्ता
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)