एक तरफ हर नए दिन अस्पतालों में बदइंतजामी से कोरोना मरीजों की जान जा रही है, दूसरी तरफ सरकार चाहती है कि लोग सोशल मीडिया पर अपनी आवाज भी न उठाएं। यह कैसे हो सकता है। अगर किसी अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं है, बेड नहीं है, वेंटिलेटर नहीं है, जीवन रक्षक दवाएं नहीं हैं और लोग इस सब चीजों को भुगत रहे हैं, तो मदद की गुहार तो लगाएंगे। अपने परिजनों के इलाज के लिए दर-दर भटक रहे लोग आखिर सोशल मीडिया पर अपनी व्यथा व्यत करेंगे, लोगों से सहयोग की अपील करेंगे। इसे अगर सरकार अपनी बदनामी समझेगी, तो लोकतंत्र के खिलाफ होगा। लोगों को संविधान प्रदा अभिव्यकित की स्वतंत्रता है, साथ ही सरकार की शति जनता में निहित है, इसलिए जनता को संवैधनिक हक है कि वह अपनी सरकार की समाचोलना करे। सुपीम कोर्ट ने प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात के लिए फटकार लगाई कि इंटरनेट पर मदद की गुहार लगा रहे नागरिकों को यह सोचकर चुप नहीं कराया जा सकता कि वे गलत शिकायत कर रहे हैं। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हमें लोगों की आवाज सुननी चाहिए। कोविड-19 की दूसरी लहर राष्ट्रीय संकट है, इंटरनेट पर मदद मांगने पर रोक नहीं लगा सकते।
शीर्ष अदालत ने साफ कर दिया कि सोशल मीडिया पर लोगों से मदद के आह्वान सहित सूचना के स्वतंत्र प्रवाह को रोकने के किसी भी प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जाएगा। सूचना का निर्बाध प्रवाह होना चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने केंद्र, राज्यों और सभी पुलिस महानिदेशकों को निर्देश दिया कि वे ऐसे किसी भी व्यति पर अफवाह फैलाने के आरोप पर कोई कार्रवाई नहीं करें जो इंटरनेट पर ऑक्सीजन, बिस्तर और डॉटरों की कमी से संबंधित पोस्ट कर रहे हैं। ऐसे किसी पोस्ट को लेकर यदि परेशान नागरिकों पर कोई कार्रवाई की गई तो हम उसे न्यायालय की अवमानना मानेंगे। न्यायालय की टिप्पणी उार प्रदेश प्रशासन के उस हालिया फैसले के संदर्भ में काफी मायने रखती है जिसमें कहा गया है कि सोशल मीडिया पर महामारी के संबंध में कोई झूठी खबर फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। कोविड-19 प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति बनाने के लिए स्वत: संज्ञान मामले पर शीर्ष अदालत के समक्ष सुनवाई जारी है। पीठ देश में वर्तमान और निकट भविष्य में ऑसीजन की अनुमानित मांग और इसकी आपूर्ति तय करने के लिए निगरानी तंत्र जैसे मुद्दों को देख रही है।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि अग्रिम मोर्चे पर कार्य कर रहे डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को भी इलाज के लिए अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी अवाम की आंख खोलने वाली है कि हमें 70 साल में स्वास्थ्य अवसंरचना की जो विरासत मिली है, वह अपर्याप्त है और स्थिति खराब है। शीर्ष कोर्ट ने कहा कि छात्रावास, मंदिर, गिरिजाघरों और अन्य स्थानों को कोविड.19 मरीज देखभाल केंद्र बनाने के लिए खोलना चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा.केंद्र को राष्ट्रीय टीकाकरण मॉडल अपनाना चाहिए योंकि गरीब आदमी टीके के लिए भुगतान करने में सक्षम नहीं होगा। आखिर हाशिये पर रह रहे लोगों और अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति की आबादी का क्या होगा? क्या उन्हें निजी अस्पतालों की दया पर छोड़ देना चाहिए, सरकार विभिन्न टीकों के लिए राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम बनाना चाहिए और उसे सभी नागरिकों को मुख्त में टीका दे तय करना चाहिए। दरअसल, निजी टीका उत्पादकों को यह फैसला करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि किस राज्य को कितनी खुराक मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र टीके की कीमत, ऑसीजन, दवाओं सहित आवश्यक सेवाओं और आपूर्ति को लेकर एक राष्ट्रीय योजना लेकर आएगा।