ठीक दो महीने पहले जब भारत ने 60 से अधिक देशों को कोविड वैक्सीन की करोड़ों खुराक भेजीं थीं तो मैंने भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी की प्रशंसा की थी। अब जबकि, देश में रोज साढ़े तीन लाख से अधिक कोरोना के नए मामले सामने आ रहे हैं और मरने वालों की संख्या सरकारी आकड़ों से कहीं अधिक है तो वैश्विक नेता की बात करने वाला कोई नहीं है।
अगस्त तक 40 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगाने के लक्ष्य से देश स्पष्ट रूप से पीछे दिख रहा है। कोरोना के मामलों में तेजी से बढ़ती चिंता और कोविड के नए प्रकारों पर मौजूदा वैक्सीन के प्रभावी न होने की आशंका की वजह से मुझे लगता है कि भारत जैसी अर्थव्यवस्था जो अभी पूरी तरह से उबरी नहीं, उसके सामने विकासशील देशों से किए वादों और घरेलू मांग को पूरी करने की चुनौती और बढ़ सकती है। पिछले साल महामारी की पहली लहर से उबरने के बाद भारत में इतनी जल्दी हर चीज इतनी गलत कैसे हो गई। गलतियों की सूची बहुत लंबी है। कुछ प्रतीकात्मक चीजों से शुरू करते हैं।
राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से मिलकर थाली बजाने का आग्रह किया। फिर मोमबत्ती जलाने को कहा। महामारी से लड़ने में वैज्ञानिक नीतियों का स्थान अंधविश्वास ने ले लिया। दूसरी गलती विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह की अनदेखी थी जिसने एक नियंत्रण रणनीति बनाने की सलाह दी थी, जिसके तहत जांच, कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग, आइसोलेशन और इलाज की जरूरत थी।
फिर मार्च 2020 में चार घंटे से भी कम समय के नोटिस पर मोदी ने देश में पहला लॉकडाउन लागू कर दिया। देश के 28 राज्यों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक रणनीति बनाने का अधिकार देने की बजाय केंद्र सरकार ने दिल्ली से आदेश देकर कोविड-19 को नियंत्रित करने का प्रयास किया, जिसके परिणाम नुकसानदायक रहे।
जैसे-जैसे संकट हाथ से निकलने लगा, केंद्र सरकार ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का अनुसरण करते हुए बिना पर्याप्त फंड के अधिक से अधिक जिम्मेदारियां राज्य सरकारों पर डालनी शुरू कर दीं। राज्य संसाधन जुटाने के लिए संघर्ष करने लगे। सरकार में पीएम केयर्स के नाम से एक नई राहत संस्था बनाकर उसमें भारी फंड जमा किया, लेकिन आज तक इस बात की कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है कि इसमें कितना फंड है।
जब महामारी धीमी पड़ती दिखने लगी तो अधिकारी ढीले पड़ गए और दूसरी लहर की आशंका के बावजूद कोई एहतियाती उपाय नहीं किए। और जब लोगों ने आवश्यक दिशा-निर्देशों का पालन करना बंद कर दिया तो इस वायरस ने खतरनाक रूप ले लिया। चुनावी रैलियों और धार्मिक उत्सवों ने सुपर स्प्रैडर का काम किया।
सरकार ने कोविड-19 की दो स्वीकृत वैक्सीन के उत्पादन को तेज करने की कोई कोशिश नहीं की। न ही विदेशी वैक्सीन के निर्यात की अनुमति दी। भारत ने ब्रिटेन में वैक्सीनेशन शुरू होने के दो महीने बाद अपना वैक्सीनेशन अभियान शुरू किया। यहां पर भी अधिकारियों ने पहले केंद्रीयकरण की कोशिश की और विदेश में बनी वैक्सीन को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया।
जिससे अप्रैल मध्य तक देश में वैक्सीन की कमी होने लगी। इसके बाद सरकार ने वैक्सीन लगाने का जिम्मा राज्य सरकारों को दिया और अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप, रूस व जापान में स्वीकृत वैक्सीनों को मंजूरी दी। इसके बाद भी केंद्र सरकार विभिन्न राज्यों को समान रूप से वैक्सीन देने में विफल रहा।
ऐसे समय पर जब भारतीयों की उनको बचाने में सक्षम वैक्सीन तक पहुंच नहीं थी, भारत का वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम चतुराई नहीं बल्कि एक शेखी वाला कदम था। वैश्विक नेतृत्व घर से शुरू होना चाहिए और आज घर एक ऐसा देश है, जिसके लाशघरों, कब्रिस्तानों और श्मशानों में जगह कम पड़ रही है।
शशि थरूर
(लेखक सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं ये उनके निजी विचार हैं)