सिस्टम में नाकारेपन का वायरस

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मीडिया मंचों पर बार-बार कहा जा रहा है कि लोगों की जान कोरोना के कारण कम और ‘सिस्टम’ के कारण ज्यादा जा रही है। ‘सिस्टम’ यानी सरकारी व्यवस्था और बंदोबस्त। सवाल यह है कि हमारा 70 साल पुराना तंत्र कोरोना की दूसरी लहर से जूझने के बजाय ढहते हुए क्यों नजर आ रहा है? इसके दो कारण हैं, एक फौरी और दूसरा दूरगामी। इसकी जिमेदारी दफ्तर में बैठे क्लर्क या उससे काम करवाने वाले अफसर की न होकर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की है। फौरी कारण तो अंधे को भी दिख सकता है। पिछले साल अप्रैल से इस साल के अप्रैल तक स्वास्थ्य प्रणाली में वेंटिलेटरों, आईसीयू और ऑक्सीजन वाले बिस्तरों का इजाफा जरूरत से बहुत कम हुआ। आफत के समय अस्थायी अस्पताल बनाने की क्षमता तो हमने विकसित ही नहीं की है। कोविड के नए रूपों ने हमारी टेस्टिंग की प्रभावकारिता पर सवालिया निशान लगा दिए हैं।

उधर गांवों से लेकर शहरों तक फैली जनस्वास्थ्य प्रणाली में न जाने कब से दीमक लगी हुई है। पूछा जाना चाहिए कि पहली लहर के कमजोर होने और दूसरी लहर के आने के बीच मिले छह महीनों का सदुपयोग क्यों नहीं किया गया? इसलिए कि राजनीतिक नेतृत्व और उसकी प्राथमिकताओं को लागू करने वाली अफसरशाही का दूरंदेशी, योजना और तत्परता से कोई ताल्लुक नहीं है। यह एक कड़वी हकीकत है कि हमारे लोकतंत्र के प्रशासनिक ढांचे, न्यायपालिका, पुलिस और चुनाव कराने कराने वाले तंत्र में पिछले 50 साल से कोई सुधार नहीं हुआ है। इसीलिए यह व्यवस्था किसी भी काम को ठीक से करने के लिए आवश्यक रचनात्मक ऊर्जा, योजना बनाने की प्रतिभा और दो कदम आगे की सोच कर कार्रवाई करने के गुणों से पूरी तरह वंचित हो चुकी है। इसका एक छोटासा उदाहरण यह है कि ऑक्सीजन की कमी दूर करने के लिए उस पर लगने वाले शुल्क को हटाने का फैसला उस समय किया गया, जब इसकी किल्लत सारी सीमाएं पार कर गई।

अभी तक देश के एक इलाके में आई आपदा से निबटने की विफलताओं से दूसरे इलाके प्रभावित नहीं होते थे। इसलिए तंत्र का खोखलापन छिपा रहता था। कोरोना की दूसरी लहर में जि़ंदगी और मौत की जद्दोजहद ने बिना किसी मुरव्वत के ‘सिस्टम’ की पोल खोलकर रख दी है। इस व्यवस्था के सभी अंगों को निष्क्रियता और प्रमाद का वायरस न जाने कब से लगा हुआ है। अगर लोकतंत्र चलाना है तो सरकार को बिना देर तंत्र के सभी अंगों में सुधार के ब्लू प्रिंट तैयार करके काम शुरू कर देने चाहिए। सुधार की सिफारिशों पर केवल अमल की देर है। चौतरफा और गहन सुधार करने में 5-7 साल का समय लग सकता है। लेकिन, कभी तो शुरुआत करनी ही पड़ेगी। जो सरकार इन सुधारों पर ध्यान देगी, उसे इनके राजनीतिक लाभ भी होंगे। लोकतंत्र के इतिहास में उस सरकार का नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।

अभय कुमार दुबे
(लेखक सीएसडीएस, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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