पिछले साल मार्च में बाजार के धराशायी होने पर कई निवेशकों ने कोरोना महामारी को कुदरती आपदा के रूप में देखा। उन्होंने इसे विाीय संकट से लगा ऐसा झटका नहीं माना, जिसका लंबे समय तक असर रह सकता हो। सरकारों और केंद्रीय बैंकों ने रेकॉर्ड राहत पैकेज देने शुरू किए। इससे निवेशकों को भरोसा हुआ कि अब आगे मार्केट को ऐसे किसी भी झटके से बचाने के लिए हर जरूरी उपाय किए जाएंगे। लॉकडाउन के चलते लोग काफी हद तक घरों में ही थे, ऐसे में उन्होंने अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा शेयरों में लगा डाला। अब अधिकतर लोगों को उम्मीद है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में जान लौटने के साथ बाजारों में रैली जारी रहेगी। लेकिन पेच यह है कि महामारी के खत्म होने का असर बाजारों पर पहले ही पड़ चुका है। शेयरों की वैल्यू रेकॉर्ड लेवल छू रही है। टीका लगने के साथ जिंदगी सामान्य होने की ओर बढ़ रही है। इसलिए लोग निवेश घटाएंगे और ज्यादा पैसा शॉपिंग पर खर्च करेंगे। जो राहत पैकेज जारी किए गए थे, उनका कम ही हिस्सा शेयरों की ओर जाएगा। ज्यादा रकम जाएगी तमाज चीजों और सेवाओं की खरीद में। ऐसे में कंज्यूमर प्राइस इंफ्लेशन बढऩे का चांस है। ऐसा हुआ तो लंबी अवधि की ब्याज दरों में इजाफा होगा। ऐसे हालात में पैसा शेयर बाजारों से निकल सकता है। यही वजह है कि मौजूदा साल पिछले साल की मिरर इमेज साबित हो सकता है।
तबाही लाने वाली वैश्विक मंदी के दौरान बाजार ने उछाल भरी थी। लेकिन जब दुनिया की अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा होगा, उस दौरान यह फ्लैट रह सकता है। आइए, समझते हैं कि ऐसा यों हो सकता है। रैली शुरू हुई थी मार्च के आखिरी दिनों में। उससे ऐन पहले अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने राहत उपायों का ऐलान किया था। वह फेड का इस दिशा में पहला कदम था। राहत का सिलसिला जारी रहा। फेड की ही राह सभी बड़े देशों के केंद्रीय बैंकों ने पकड़ी। आरबीआई ने जो राहत उपाय किए, वे जीडीपी के 6 फीसदी के बराबर थे। यानी इमर्जिंग मार्केट में दिए गए पैकेज का औसतन चार गुना। इसके बाद सरकारों ने भी कदम उठाए। भारीभरकम खर्च के ऐलान हुए। अमेरिका में इसके चलते लोगों की खर्च करने लायक आमदनी बढ़ाने में मदद मिली। इतनी बढ़ोतरी, जितनी पिछले 70 सालों में भी नहीं दिखी थी। लेकिन इसका बड़ा हिस्सा जस का तस रह गया, खर्च ही नहीं किया गया। लगभग हर विकसित देश में बचत में बढ़ोतरी हुई। अमेरिकियों ने जिस रफ्तार से बचत की, वैसी तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से नहीं दिखी थी। एक लाख 70 करोड़ डॉलर बचा लिए उन्होंने। यानी साल 2020 में अपनी आमदनी के 16 फीसदी से भी ज्यादा। तो बैंकों में ज्यादा पैसा आया, लोगों के हाथों में ज्यादा पैसा आया। ऐसे में कई लोगों ने शेयर बाजारों में दांव लगाना शुरू कर दिया।
अमेरिका और इंग्लैंड से लेकर दक्षिण कोरिया और भारत तक में लोगों ने शेयरों की धुआंधार खरीदारी की। भारत की बात करें तो 2019 से 2020 के बीच ऑनलाइन ट्रेडिंग एकाउंट्स की संख्या 45 फीसदी बढ़ गई। इन सब वजहों से बाजारों में तेजी आई। हालांकि ज्यादा फायदा दिखा अमेरिका और चीन के बाजारों में। साल 2020 में दुनियाभर के बाजारों में जो बढ़त रही, उसका अधिकांश हिस्सा इन दो देशों के नाम रहा। अब बड़ा सवाल यह है कि जब वायरस काबू में आएगा तो कहां जाएगा यह सारा पैसा? महामारी विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड पर गर्मियों तक काबू पाया जा सकता है। अमेरिका और इंग्लैंड में ऐसा कुछ पहले हो सकता है क्योंकि वहां बड़ी तेजी से वैक्सीन लगाई जा रही है। कई विशेषज्ञों का मोटा अनुमान यही है कि साल 2021 में दुनिया की जीडीपी ग्रोथ 5 फीसदी से कुछ ही ज्यादा रहेगी। अमेरिका में अनुमान है करीब 6 फीसदी ग्रोथ का। लेकिन मुझे लग रहा है कि दुनिया का जीडीपी 6 फीसदी से ज्यादा बढ़ सकता है और अमेरिका के मामले में आंकड़ा रह सकता है 8 फीसदी के करीब। किसी भी विकसित देश के लिए यह शानदार रफ्तार होगी। इकॉनमी बूम करेगी तो बचत करने वाले लोग हाथ खोल देंगे, खर्च बढ़ा देंगे। सैर-सपाटे और दूसरी सेवाओं के लिए मांग फिर बढ़ेगी। उन उद्योगों पर दबाव आएगा, जिन पर महामारी की मार पड़ी थी।
पिछले दिनों काम-धंधा जिस तरह ठप रहा, उसके चलते चीजों और सेवाओं की सप्लाई प्रभावित हो सकती है। इससे महंगाई चढ़ सकती है। इसका असर बॉन्ड मार्केट पर पडऩे लगा है। ऐसे में ऊंचे यील्ड की संभावना देखकर निवेशक शेयर बाजारों से किनारा कर सकते हैं। बाजार अभी वैसे ही ब्याज दरों में उतार-चढ़ाव को लेकर काफी फिक्रमंद दिख रहे हैं। लंबी अवधि की ब्याज दरें ऊंचे स्तरों पर रहने से अमेरिका और चीन में दिग्गज टेक शेयरों के बुल रन का खात्मा हो सकता है। पैसा कुछ नए देशों और उद्योगों की ओर जा सकता है। जो साल गुजरा है, उसमें हल्ला था वायरस, वर्चुअल, वर्क फ्रॉम होम और मंदी का। अब इनकी जगह ले सकते हैं वैक्सीन, असल जिंदगी की हलचल, ऑफिस में कामकाज और रीफ्लेशन यानी इकॉनमी की रफ्तार बढ़ाने के उपाय। ऐसा देखा गया है कि बाजार ग्लोबल इकॉनमी में बड़े बदलावों को अमूमन कम करके आंकते हैं। 1980 के दशक के शुरुआती सालों में महंगाई दर में कुछ नरमी आई तो ब्याज दरें तेजी से घटाई गईं। और तब निवेशकों ने जितना अंदाजा लगाया था, उससे कहीं बड़ा असर पड़ा बाजारों पर। अब रिस्क है महंगाई के सिर उठाने का और बॉन्ड यील्ड के अनुमान से कहीं ज्यादा बढऩे का। 2020 की रैली इसके चलते खत्म हो सकती है। ऐसे में जब ग्लोबल इकॉनमी की रफ्तार बढ़ रही होगी, उसी दौरान शेयर बाजार मुश्किल में घिर सकते हैं।
रुचिर शर्मा
(लेखक जाने-माने विश्लेषक और ग्लोबल इनवेस्टर हैं ये उनके निजी विचार हैं)