कोलकाता को बना दो देश की राजधानी

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हमने इसे शास्त्रसम्मत जैसा मान लिया है कि दिल्ली ही देश की राजधानी हो सकती है। इतने बड़े देश में एक ही शहर को लगातार राजधानी होने का आभिजात्य सुख मिले, यह भी क्या कोई बहुत ठीक बात है? ऐतिहासिक और विश्वप्रसिद्ध तथ्य है कि ब्रिटिश काल में 1911 तक कोलकाता भारत की राजधानी रहा। देश का शायद ही कोई और शहर होगा जिसमें जन्मे या कभी न कभी निवास कर चुके इतने सारे ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, ऑस्कर और नोबेल पुरस्कार विजेता हों। टैगोर से मदर टेरेसा तक, अमर्त्य सेन से अभिजीत बनर्जी तक, आशापूर्णा देवी और महाश्वेता देवी से लेकर ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे तक। यह कोई छोटी बात है?

दिल्ली का सत्तारूढ़ तबका आजादी के बाद पहली बार कोलकाता और बंगाल में इतना सक्रिय है। क्या गजब हो कि मोदी जी घोषणा कर दें- ‘1911 में अंग्रेजों ने गलती की थी। अब राजधानी वापिस हुगली के पूर्वी किनारे पर बसा शहर कोलकाता ही होगी।’ कहने की देर है, एक झटके में ममता, लेफ्ट और कांग्रेस, सब चारों खाने चित्त हो जाएंगे। सारा बंगाल इस बात से अभिभूत होकर मोदी जी के कहे अनुसार मतदान कर देगा और अभूतपूर्व बहुमत से बीजेपी पश्चिम बंगाल में सरकार बना लेगी।

अंग्रेजों ने कोलकाता से हटाकर दिल्ली में राजधानी बनाने का फैसला बंगाल में राष्ट्रवाद के उभार से डरकर लिया था। आजकल दिल्ली के आसपास कृषक राष्ट्रवाद का तूफान उभरा हुआ है। तर्क दिया जा सकता है कि 110 साल बाद अंग्रेजों की गलती सुधारने का, इतिहास को दुरुस्त करने का यह बिलकुल सही वक्त है।

दिल्‍ली के इस सर्वमान्‍य राजधानी स्‍टेटस के पीछे कारण सोचें तो एक तो अंग्रेजों ने दिल्‍ली को राजधानी की तरह विकसित किया। हमारी सरकारें इस बारे में सोचने और नए शहरों को विकसित करने में लापरवाह या आलसी रहीं। इसके अलावा, शायद किसी और शहर की बजाय क्षेत्रवाद की आशंका दिल्‍ली के साथ कम होना वह दूसरा कारण रहा होगा, जिसे ध्यान में रखते हुए स्‍वतंत्र भारत की सरकारों ने अंग्रेजों से उत्तराधिकार में मिली राजधानी को बिना सवाल उठाए स्वीकार कर लिया।

उत्तर प्रदेश और बिहार का लोक जिस तरह से कलकत्ते को सदियों से देखता रहा है, वह दृष्टि क्या दिल्ली के लिए बन पाई है? कोलकाता शहर में ही उत्तर प्रदेश और बिहार के इतने प्रवासी हैं कि वे कोलकाता की एक अलग सांस्कृतिक इकाई बन गए हैं। यहां ‘मटियाबुर्ज के आखिरी नवाब’ को याद करना भी जरूरी है कि कैसे वाजिद अली शाह ने कलकत्ते में एक अवध बसा लिया था।

और, मारवाड़ियों को तो कोलकाता शहर में कमोबेश वही ‘लव- हेट’ हासिल है जो अंग्रेजों को हासिल रहा है। कहते हैं, एक बीकानेरी कलकत्ते आकर बसा ही था। एक संध्या हावड़ा के पुल से गुजरा तो मुंह से निकला, ‘वाह, वाह महाराज गंगासिंह, कांईं बणायो है!’ महाराजा गंगासिंह बीकानेर के इतने प्रतापी शासक हुए हैं कि हर बीकानेरी को लगता है, दुनिया में जो कुछ भी अच्छा बनाया हुआ है, उसे गंगासिंह जी ने ही बनाया है।

और वाजिद अली शाह के समय का लखनऊ भी क्‍या कोई कम था। अवध के चौथे नवाब आसफउद्दौला अपनी राजधानी फैजाबाद से लखनऊ लाए थे। कहते हैं, धीरे-धीरे लखनऊ कलकत्ते की टक्‍कर का शहर हो गया था। विलियम नाइटन ने ‘प्राइवेट लाइफ ऑफ एन ईस्‍टर्न किंग’ में लिखा है कि विदेशी पर्यटक जब लखनऊ आते हैं तो इसको देखकर उन्‍हें ग्रांड कैरो और मास्‍को की याद आती है। 1858 के गदर में नेस्‍तनाबूद लखनऊ को देखने आए लंदन के अखबार ‘दि टाइम्‍स’ के पत्रकार विलियम रसेल ने कहीं लिखा है कि रोम, एथेंस, कुस्‍तुनतुनिया किसी भी शहर से लखनऊ की तुलना जायज नहीं है। खूबसूरती में लखनऊ ने बाकी तमाम शहरों को पीछे छोड़ दिया है। तो लखनऊ ही आजाद भारत की राजधानी होने का कौन सा कम हकदार है!

सोचने लायक बात है कि भारत की राजधानी का फैसला हमेशा हुक्मरानों ने किया। कई नगर अलग-अलग वक्त में भारतवर्ष की राजधानी रहे। भारत की केंद्रीय सत्ता के केंद्र पाटलिपुत्र, आगरा और लाहौर भी रहे। सबसे ज्यादा समय दिल्ली को यह अवसर मध्यकाल में मिला, पर हमने यथारूप में ही इसे मान लिया। कभी स्वतंत्र भारत की सरकार ने भारत की जनता से राजधानी का सवाल नहीं पूछा। कभी यह भी नहीं सोचा कि दिल्‍ली अगर अंग्रेजों की औपनिवेशिक रणनीतियों के तहत राजधानी चुनी गई तो आजाद भारत की राजधानी विषयक अस्मिता इस रणनीति से अलग भी कुछ हो सकती थी या नहीं?

एक दीवाने का ख्याल यह भी हो सकता है कि आजादी के बाद अगर पहले सौ साल राजधानी उत्तर भारत में रही तो अगले सौ साल दक्षिण भारत में क्यों नहीं हो सकती?

मध्यकाल या मुस्लिमकाल की प्रतीकात्मकता दिल्ली के साथ जुड़ी है तो वह अंग्रेजों की राजधानी के रूप में कलकत्ते की भी मान सकते हैं। आजादी हासिल होने के बाद अंग्रेजों से वह नफरत शायद भारतीय जनमानस में नहीं मिलती, जैसी किसी भी औपनिवेशिक मालिक के लिए होनी चाहिए। इसकी वजह शायद यह हो कि चाहे अंग्रेजों ने अपने भले के लिए या व्यापारिक हितों के लिए ही दिया हो, पर भारत को बहुत कुछ दिया। प्रायः सहमति ही है कि अंग्रेजों की गुलामी बुरी थी, पर उनका राज भारत को बहुत तरीकों से बहुत कुछ देकर भी गया। शिक्षा, रेल, सिविल सेवा इसके कुछ उदाहरण हैं।

यह एक खामखयाली भी हो सकती है लेकिन इसे ‘आउट ऑफ द बॉक्स थॉट’ भी कहा जा सकता है कि अगर आजादी के बाद कोलकाता भारत की राजधानी होता तो भारत का लोकतंत्र क्या अलग होता? क्या सकारात्मक रूप से हम कहीं और खड़े होते? हालांकि आजाद भारत की राजधानी होने के लिए अंग्रेजों के हाथों आर्थिक लूट की विरासत कोलकाता की शायद अकेली डिसक्‍वालिफिकेशन हो। सत्‍यजीत रे के एक कथन के साथ इस बात को अधूरा छोड़ना चाहिए- ‘मैं उतना रचनात्‍मक दुनिया में कहीं भी महसूस नहीं करता, जितना कलकत्ते के अपने घर में आराम कुर्सी में बैठकर करता हूं।’

दुष्यंत
(लेखक इतिहास के अध्येता हैं और फिल्म लेखन से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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