मनोरंजन : दर्शक ऊब का शिकार

0
285

लंबे समय से चल रहे मनोरंजन के दौर के कारण अब मनोरंजन का संतृप्त घोल बन चुका है। दर्शक ऊब का शिकार हो गया है। आश्चर्यजनक ये है कि चुनाव प्रक्रिया निरंतर जारी है। लोकसभा से ग्राम पंचायत तक यह चल रहा है। क्या इसका संतृप्त घोल हमें ऊबा नहीं पाता? जीवन के विराट परदे पर यह चलचित्र चल रहा है। उम्रदराज कलाकारों का स्थान नए कलाकार ले रहे हैं। मेकअप विद्या में नित नई चीजें सामने आ रही हैं। मुखौटों पर बनी भवों में नए पेंच जाने कैसे बन गए हैं?

जुबान केवल मीठे और नमकीन का भेद कर पा रही है। बारीकियां खत्म हैं, केवल सफेद और स्याह का अंतर ही कायम रह गया है। टीवी की सतरंगी चकाचौंध से परेशां और थकी आंखों को स्याह, सफेद संतोष देने लगा है। सुरमई अंधेरा और चंपई उजाला अभिव्यक्ति का चमत्कार मात्र रह गया है। आज अखबार में पढ़ा कि एक साधन संपन्न व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली और उसे नहीं मालूम था कि मर कर भी चैन ना मिला तो कहां जाएंगे हम? यहां सबसे अधिक चिंतनीय यह है कि छात्र पढ़ना-लिखना नहीं चाहते।

पहले कहावत रही कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब।’ आज हकीकत यह है कि खेलने में प्रवीणता के कारण खूब धन कमाया जा रहा है। फुटबॉल खिलाड़ियों को असीमित धन मिल रहा है। भारत में क्रिकेटर धन कमा रहे हैं। इस मार्ग से आयकर विभाग को धन मिल रहा है। हमने पहले गुणवान शिक्षक खो दिए, अब छात्र संख्या घट रही है। पढ़ने-पढ़ाने का स्वांग जारी है। महात्मा गांधी ने जीवन उपयोगी पाठ्यक्रम की समस्या की ओर ध्यान देने की बात की थी।

हमने तो गांधीवाद ही निरस्त कर दिया। फिल्मकार राजकुमार हिरानी ने इसमें प्राण फूंकने का प्रयास किया था। हमारी तो जिद है कि हम नहीं सुधरेंगे। पथरा गई पीठ हाजिर है परंतु कोड़े लगाने वाले हाथ थक गए। अब जीने की दशा और कोमा में महीन सा अंतर बचा है। भयावह यह है कि कोमा के मरीज को वेंटिलेटर पर रखकर प्राणवान रखा जा सकता है परंतु ऊबने वाले के लिए वेंटिलेटर कैसे बनाएं?

ऊब से बचने के लिए स्वयं को निरंतर मांजते रहना होता है। मांजने के काम में आने वाले ठीकरे घिस कर टूट गए हैं। इन्हें साफ करने के लिए राखोड़ी और कोयला चाहिए। खानें, कबकी बांझ हो गई हैं। नदियों में इतनी काई जमा है कि पानी नजर नहीं आता। यह विज्ञान मानता है कि 35 वर्ष तक के व्यक्ति को कोरोना नहीं होता। व्यवस्था ने स्कूल बंद कर दिए हैं।

बाजार, चुनावी सभाएं इत्यादि बाकायदा जारी हैं। साधनों को साध्य मानने की त्रुटि पर भी महात्मा गांधी ने ध्यान दिलाया था परंतु केवल करेंसी नोट पर ही बापू के दर्शन हो सकते हैं। यह किवाड़ भी बंद करने के मंसूबे हैं। यह हमारी चिंता होनी चाहिए कि ‘तेरे दिल को कबूल हो, वह अदा कहां से लाऊं, तेरे दिल में गम ही गम है, मेरे दिल में तू ही तू है, तुझे और की तमन्ना मुझे तेरी आरजू है।’ समग्र व्याप्त ऊब की समस्या से आम आदमी निपटता है।

यह काम व्यवस्था का नहीं है। आम आदमी को ही उसके दिल में छुपे आनंद और रुचियों को खोजना है। सारी यात्राओं का गंतव्य भीतर कहीं है। हम उस हिरण की तरह हैं जो सारी उम्र उस सुगंध की खोज में भटकता है, जिसका स्रोत उसके भीतर ही है।

वृहद ग्रंथों में हम खोजते रहे हैं जबकि गुटका संस्करण में ही उपलब्ध रहा है। जाने गीता का गुटका संस्करण कहां रख दिया है? हमारी हर सदा, सितारों से टकराकर लौट रही है। जाने क्यों इन घाटियों से आवाज लौटकर नहीं आ रही है? वह कौन सा एस्बेस्टॉस है, जो ध्वनि को निगल गया है? रोज के जीवन में छोटी-छोटी चीजों की चकमक की ज्वाला से काम चलाइए।

(लेखक जयप्रकाश चौकसे फिल्म समीक्षक है ये उनके निजी विचार है )

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here