स्वास्थ्य सेवाओं की कमियां उजागर

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वर्ष 2015-16 में किए गए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत में 8 में से एक व्यक्ति किसी एक प्रकार की मानसिक बीमारी से प्रभावित हैं। हालांकि अधिकांश लोगों को मामूली मानसिक बीमारी है, पर आबादी में 2% लोगों को गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं हैं, जिनमें चिकित्सकीय सलाह व इलाज की जरूरत है। इस सर्वे से यह भी उजागर हुआ कि मानसिक स्वास्थ्य के मामले में 75 से 85% लोग स्वास्थ्य सेवाएं नहीं लेते।

इसका कारण सेवाओं की उपलब्धता में कमी के साथ-साथ समाज का रवैया दोनों है। पुराने समय से समाज में मानसिक बीमारी किसी कलंक की तरह मानी जाती है, जिसके कारण लोग बीमारी छिपाते हैं व इलाज में देर भी करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की जो परिभाषा दी है उसमें स्वस्थ होने का अर्थ सिर्फ शारीरिक बीमारी मुक्त होना ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानसिक रूप से स्वस्थ होना भी शामिल है। बात साफ है कि मानसिक बीमारियां दूसरी शारीरिक बीमारियों की तरह ही हैं।

जैसे दिमाग का काम सोचना, याददाश्त, बोलने में मदद करना है और यह हमारा व्यवहार भी तय करता है। ये सारे काम दिमाग में मौजूद विभिन्न न्यूरोट्रांसमीटर्स के आधार पर होते हैं। इसलिए दिमाग में जब कोई बीमारी पनपती है या इन ट्रांसमीटर्स का संतुलन बिगड़ता है, तो मानसिक स्वास्थ्य पर असर आता है। पिछली सदी में चिकित्सा क्षेत्र में हुई प्रगति से, शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज किया जा सकता है।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी एक अहम् चुनौती है। भारत में करीब सिर्फ चार हजार प्रशिक्षित मनोचिकित्सक हैं। इसका मतलब है कि 3,50,000 लोगों पर सिर्फ एक विशेषज्ञ डॉक्टर। उनमें से अधिकांश बड़े शहरों और राजधानियों में हैं। इसके अलावा मनोचिकित्सा नर्स और काउंसलर्स की भी कमी है। कोविड महामारी ने लोगों की मानसिक सेहत पर गंभीर असर डाला है।

इस दौरान मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत कई गुना बढ़ी है। कोविड का डर, आइसोलेशन, वर्क फ्रॉम होम, भेदभाव, आय के जरिए खत्म होना, कुछ मामलों में नौकरी का जाना, चारों ओर अनिश्चितता का माहौल और दूसरे कारकों ने तनाव बढ़ाया और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे बढ़ा दिए। महामारी ने एक बार फिर मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है। इसके लिए कई स्तरों पर समन्वित हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

प्रशिक्षण क्षमता बढ़ाने व मानसिक स्वास्थ्य कर्मचारियों की उपलब्धता में तेजी लाने की जरूरत है। अनुभव बताते हैं कि अगर स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ जिला स्तर पर ही उपलब्ध होंगी, तो शायद ही लोग इसका इस्तेमाल करें। ये सेवाएं लोगों के करीब और ग्रामीण व शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी होनी चाहिए। इस दिशा में काम की जरूरत है।

अगर राज्यों के मुख्यमंंत्री व स्वास्थ्य मंत्री मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का जायजा लें और मजबूत करने की प्रतिबद्धता दिखाएं तो यह बड़े बदलाव की शुरुआत होगी। सबके लिए सरकारी फंडिंग बढ़ानी चाहिए। आम सहमति है कि स्वास्थ्य बजट का 1% से 2%, बिल्कुल अलग मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवंटित होना चाहिए।

भारत में राज्यों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की और अधिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए। लोगों को इसका डर कम करने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान चलाने और मानसिक बीमारियों का जल्दी इलाज कराने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। मानसिक स्वास्थ्य की जरूरतें कोविड महामारी से पहले भी थीं, महामारी के दौरान भी देखी गईं और आगे भी रहेंगी। इस चुनौती की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

डॉ चन्द्रकांत लहारिया
(लेखक जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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