पाक के पैंतरों से सावधान रहना होगा

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भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में 1990 में सेना के निरीक्षण में आम चुनाव हुए थे, जिसके नतीजे उसे पसंद नहीं आए थे। तब सेना ने नतीजों को मानने से इनकार कर दिया था, आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) के लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था और देश पर ‘स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रेस्टोरेशन काउंसिल’ (SLORC) के जरिए शासन किया।

फरवरी 2021 में एक बार फिर देश में कुछ ऐसा ही हुआ, जब सू की और NLD के मंत्रियों समेत दूसरे राजनेताओं को अलसुबह गिरफ्तार कर लिया गया। सेना ने एक साल का आपतकाल घोषित कर दिया और सत्ता सेना के कमांडर-इन-चीफ जनरल मिन ऑन्ग ह्लाइंग को सौंप दी।

इस घटनाक्रम के साथ म्यांमार के वर्दी वालों ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि उनकी लोकतंत्र में रुचि नहीं है। पिछले साल नवंबर में हुए आम चुनावों में सू की NLD को भारी जीत मिली थी, जबकि आर्मी के छद्म राजनीतिक मोर्चे ‘यूनियन सॉलिडिटरी एंड डेवलपमेंट पार्टी’ महज 33 सीट हासिल कर पाई थी। हालांकि इससे सेना की शक्ति को कोई खतरा नहीं हुआ।

म्यांमार का 2011 से पहले का संविधान संसद में सेना की एक-तिहाई सीटें सुनिश्चित करता है, जिससे उसे प्रमुख मंत्रालयों पर नियंत्रण हासिल होता है। साथ ही संविधान विदेशी पति-पत्नी या बच्चे वाले लोगों को राष्ट्रपति बनने के लिए अयोग्य बताता है, जिसने सू की को पद पर बने रहने से रोका।

इन परिस्थितियों में मामला सुलझाने के लिए एक स्थिति उभरी थी। पिछले चुनावों (2015) में सू की और पूर्व राजनीतिक कैदियों से भरी उनकी पार्टी सत्ता में आई, वह भी उनके पूर्व जेलरों के साथ गठबंधन में। इस तरह म्यांमार के लोकतंत्र में अभी बहुत प्रगति बाकी थी। लेकिन अब यह प्रगति पूरी तरह रुक गई है।

म्यांमार में हाल का घटनाक्रम कोई अनोखा नहीं है। 1948 में म्यांमार को आजादी मिलने के बाद से ही सेना (इसे अब ततमादाव कहते हैं) नागरिक नेताओं से कहीं ज्यादा सत्ता में रही है। सू ने खुद 15 साल नजरबंदी में गुजारे और नवंबर 2010 में रिहा हुईं। रिहाई के बाद उन्होंने संवैधानिक रूप से सत्ता साझा करने की व्यवस्था के तहत काम किया। यह असहज सह-अस्तित्व था, जो लोगों के बीच सू की ईश्वर जैसी छवि और सेना की सख्त छवि के कारण और जटिल हो गया।

इन परिस्थितियों में भी काम ठीक-ठाक चल रहा था। सू ने अपने वर्दी वाले राजनीतिक सहयोगियों से समझौते किए, यहां तक कि म्यांमार में मुस्लिम रोहिंग्या अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मुद्दे पर वैश्विक स्तर पर उनकी छवि को काफी नुकसान हुआ। आलोचकों ने सू पर तुष्टीकरण से लेकर अंध-देशभक्ति और नस्लभेद तक के आरोप लगाए, वहीं प्रशंसकों का मानना था कि उनकी व्यावहारिकता ही ऐसे देश में लोकतंत्र को बढ़ाने का एकमात्र तरीका है, जहां सेना का आधिपत्य है।

सू की की हालिया गिरफ्तारी के बाद ये आरोप लगने बंद हो गए हैं। कई सरकारों ने चिंता जताई है और सू की को रिहाकर लोकतंत्र की बहाली की मांग की है। दूसरी तरफ सेना कह रही है कि उसका कदम लोकतांत्रिक है। म्यांमार के पड़ोसी देश तख्तापलट के बाद मुद्दे पर सावधानीपूर्वक आगे बढ़ रहे हैं और हो सकता है कि उनके रुख में कुछ बदलाव आए।

लंबे समय से भारत स्पष्ट रूप से म्यांमार में लोकतंत्र, स्वतंत्रता व मानवाधिकारों के पक्ष में रहा है और यह पश्चिमी आलोचकों की तरह सिर्फ कहने को नहीं रहा है। जब 1988 में SLORC ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन को हिंसा से दबाना चाहा, तब भारत सरकार ने भागकर आए छात्र को शरण दी और लोकतंत्र समर्थक अखबार व रेडियो स्टेशन की मदद की थी।

लेकिन तब चीन म्यांमार में घुस गया और पाकिस्तान ने जनरलों से वहां की सेना से मेलजोल बढ़ाया। चीनी पोत का निर्माण, म्यांमार में प्राकृतिक गैस का मिलना और भारत के उत्तर-पूर्व में नस्ली घुसपैठ को SLORC का समर्थन, ये सभी भारत के लिए खतरा थे। नतीजतन, भारतीय नेताओं ने म्यांमार शासन के साथ अपना खुद का एक सामंजस्य बनाए रखा।

आज चीन सू की के नजदीक आ गया है, जबकि भारत को म्यांमार सेना की चीन के प्रति दूरंदेशी सहज लगती है। फिर भी, चीनी आधिकारिक मीडिया ने तख्तापलट को ‘कैबिनेट में बदलाव’ बताया है और चीन UN सुरक्षा परिषद में अकेला ऐसा देश था, जो निंदा प्रस्ताव में बाधा बना। जबकि भारत में कई लोगों को लगता है कि देश को पड़ोस में लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए खड़ा होना चाहिए, वहीं कुछ 1988-2001 के दौर की असफलता के दोहराव से बचने के लिए सोची-समझी व्यावहारिकता और सावधानी को असरकारी मानते हैं।

बर्मा के इतिहासकार थांट मियइंट-यू ने तख्तापलट के बाद ट्वीट किया था, ‘मुझे लगता है कि अब जो होने वाला है, उसे कोई नियंत्रित नहीं कर पाएगा। और याद रखें म्यांमार हथियारों से भरा हुआ ऐसा देश है, जहां नस्ली और धार्मिक आधार पर गहरे बंटवारे हैं और जहां लाखों लोग खाने के मोहताज हैं।’ यह क्षेत्र के लिए चिंताजनक है।

शशि थरूर
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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