कैंटीन योजनाएं, नौटंकी या नेकनीयत ?

0
235

बंगाल में चुनाव का मौसम चल रहा है। इसके चलते मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘मां कैंटीन’ का उद्घाटन किया है। खबरों के अनुसार, इनमें पांच रुपए में लोगों को दाल-चावल, सब्ज़ी और अंडा दिया जाएगा। बाकी खर्च (रु. 15) राज्य सरकार देगी। राज्य बजट में इस योजना के लिए रु. 100 करोड़ का आबंटन किया गया है। यह बढ़िया पहल है। ऐसे कैंटीन की जरूरत लंबे समय से है।

खाद्य सुरक्षा कानून के समय भी सुझाया गया था, लेकिन कांग्रेस सरकार उस समय नहीं मानी। कई राज्यों में यह मुख्यमंत्री की पहल पर चल रही हैं: सबसे प्रख्यात है तमिलनाडु की ‘अम्मा कैंटीन’ हैं, जिन्हें जयललिता ने शुरू किया था। कर्नाटक में सिद्धारमैया ने ‘इंदिरा कैंटीन’ चलाई। झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी दाल-भात केंद्र चल रहे हैं। महाराष्ट्र में ‘झुंका भाकर’ केंद्र का प्रयोग किया गया है। दु:खद है कि सख्त जरूरत होने पर और सफल प्रयोग के बावजूद भी कैंटीन योजनाओं को जरूरत के अनुसार राजनैतिक सहायता नहीं मिली। योजना के उद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री जरूर जाते हैं, लेकिन कैंटीन की संख्या बहुत कम है। कुछ समय बाद बजट में आबंटन की कमी की वजह से खाने की गुणवत्ता प्रभावित होती है। राजनैतिक इच्छाशक्ति के लिए इसकी जरूरत समझना अहम है। पिछले साल जब लॉकडाउन हुआ और शहरी मजदूर बिना रोजगार के शहरों में फंस गए, तब उनकी दुर्दशा हम सब ने देखी। उस समय भी हमने यह प्रस्ताव रखा था कि शहरों में बड़ी संख्या में ऐसी कैंटीन खोली जाएं।

खासकर बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हॉस्पिटल, इत्यादि के आसपास, जहां वैसे भी लाचार लोग बड़ी संख्या में होते हैं (उदाहरण के लिए, इलाज के लिए गांव से शहर आए लोग)। लॉकडाउन के समय, सरकार के पास भंडारण के मानदंड से दोगुना अनाज था, जिसके भंडारण को लेकर चिंता थी और सड़ने का डर था। कुछ हद तक सरकार ने अतिरिक्त अनाज को जन वितरण प्रणाली से बांटा। जिनके पास राशन कार्ड थे, उन्हें सरकार ने 6 महीनों तक दोगुना अनाज दिया। लेकिन जहां खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार देश के 66% जनसंख्या के पास राशन कार्ड होने चाहिए, वहां वास्तव में 60% लोगों के पास राशन कार्ड थे। यानी लगभग 10 करोड़ लोग, जिनका सस्ते अनाज पर कानूनी हक बनता है, छूटे हुए हैं। उस स्थिति में तुरंत राहत पहुंचाने के लिए कैंटीन बढ़िया उपाय था। वास्तव में, सामान्य समय में भी ऐसी कैंटीन की सख्त जरूरत है। हालांकि ममता बनर्जी ने कहा कि यह गरीब लोगों के लिए पहल है, वास्तव में कैंटीन से कामगार लोगों के लिए भी बड़ी सहूलियत है। क्या आपने कभी सोचा है कि कुरिअर और जोमैटो जैसी डिलिवरी करने वाले, जिन्हें दिनभर बाइक पर घूमना पड़ता है, वे कहां और क्या खाते हैं? ज्यादातर उनके परिवार की किसी महिला ने उन के लिए खाना पैक किया होगा या फिर सड़क पर रेहड़ी से खाते हैं।

रेहड़ी वाला खाना भी महंगा होता है। तमिलनाडु में एक सर्वे के अनुसार ऐसे काम करने वालों का दिन का रु. 50 तक खर्च होता था और अम्मा कैंटीन की वजह से प्रतिदिन कम से कम रु. 40 बचने लगे। यदि कैंटीन सब जगह चले, तो महिलाओं को रोज-रोज टिफिन बनाने से भी कुछ राहत मिल सकती है। जिन राज्यों में कैंटीन चल रही हैं, वहां की व्यवस्था पद्धति भी गौरतलब है। कैंटीन को चलाने का ठेका सहायता समूहों को दिया गया है, जिससे महिलाओं को रोज़गार मिले। महिलाओं को दोहरा लाभ मिल सकता है, घरेलू काम से राहत और घर से बाहर रोज़गार से। कोविड के चलते देश के शहरी कामगारों को बड़ा आर्थिक धक्का लगा है। देश में अनाज का भंडार फिर से 80 मिलियन टन पहुंच रहा है, हालांकि भंडारण मानदंड के अनुसार 40 मिलियन टन की ज़रूरत है। जन वितरण प्रणाली में अभी केवल 60% आबादी को सस्ता अनाज मिल रहा है, हालांकि जरूरत लगभग 80% को है।

कई विशेषज्ञों ने शहरी मजदूरों की मदद के लिए जन वितरण प्रणाली में ‘पोर्टेबिलिटी’ (यानी गांव के राशन कार्ड को शहर में भी इस्तेमाल किया जा सकता है) का सुझाव रखा था। लेकिन उनके पास राशन कार्ड ही नहीं, तो पोर्टेबिलिटी से क्या फायदा होगा? वास्तव में शहरी मजदूर और गरीब की मदद के लिए कैंटीन में पौष्टिक और सस्ता भोजन सबसे व्यावहारिक उपाय है।

रीतिका खेड़ा
(लेखिका अर्थशास्त्री हैं, दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here