कृषि कानून के खिलाफ किसान संगठन दिल्ली की सरहदों पर लगातार ढाई महीने से आंदोलनरत हैं। उन्होंने बेमौसम की बरसात व कड़ाके की ठंड के बावजूद सरहदों पर अपने तंबुओं को गाड़कर सरकार के समक्ष एक ही मांग रखी है कि इन तीन कृषि कानून को रदद करके फसलों की एमएसपी को कानूनी अमलीजामा पहनाया जाए। लगातार ढाई माह से किसानों की इस मांग को नजर अंदाज कर रही केंद्र सरकार जहां अपना अडिय़ल रवैया छोडऩे को तैयार नहीं है। वहीं विपक्षी पार्टियां इस आंदोलन में अपनी खोई हुई सियासी जमीन तलाश कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में जहां साा गंवा चुकी समाजवादी पार्टी अपने नेताओं के द्वारा ग्रामीण स्तर पर किसान पंचायतों का आयोजन कर रहा हैं वहीं केंद्र की साा से लगभग आठ साल से बाहर चल रही कांग्रेस ने भी इस आंदोलन को अपने आपको मजबूत करने के लिए किसान पंचायत के आयोजन को कमर कस ली है। इसकी शुरुआत कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राजस्थान के पीलीभंगा से शुरू की है।
इन तीनों कानूनों के खिलाफ किसानों को जागरूक करने के बहाने किसान पंचायत के माध्यम से अपनी पार्टी के संदेश को जनता तक पहंचाने का काम किया जा रहा है। उनका मकसद वहां के किसानों को इन तीनों कानून के प्रभाव से नुकसान बताकर उसके परिणामों का असर बताना उनके दिलों में अपनी व पार्टी का कद ऊंचा करना था। ये पंचायतें पार्टी के बैनर तले आयोजित की जा रही हैं। अभी दो दिन पहले कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक सभा के माध्यम से ऐलान किया था कि यदि उनकी पार्टी साा में आई तो वह इन तीनों कानूनों को रद करेगी। प्रियंका का यह कहना कि इन कानूनों को रद किया जाएगा। मिथ्या लग रहा है। क्योंकि कानून बनाते व खत्म करते समय दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत की दरकार होती है, यह जरूरी नहीं कि यदि कांग्रेस की सरकार बन भी गई तो या वह सन 1985 वाला इतिहास दोहरा पाएगी। यदि वह सरकार बनने तक ही सीटें लाती है तो वह किस तरह इन कानूनों को रद करा पाएगी? बहरहाल कांग्रेस को सत्ता में आने के लिए अभी तीन वर्ष और संघर्ष करना होगा। लेकिन किसान तो अभी से इन कानूनों को लेकर उत्पीडऩ सहन कर रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी सपा ने भी इसी तरह की मुहिम छेड़ दी है।
उसके नेता व कार्यकर्ता अपनी पार्टी के बैनर तले किसान पंचायतों का आयोजन करा रहे हैं। इन पंचायतों के माध्यम से केंद्र व राज्य सरकार के खिलाफ भड़ास निकालकर अपनी नीतियों को किसानों तक पहुंचा रहे है। सपा दावा कर रही है कि यदि 2022 में प्रदेश में उनकी सरकार बनेगी तो वह केंद्र पर इन कानूनों को रद कराने के लिए दबाव बनाएगी। सवाल यह पैदा होता है कि 2022 के बाद सपा के हाथ ऐसी कौन सी जादू की छड़ी हाथ लग जाएगी जिसका दबाव केंद्र में मोदी सरकार मानेगी। बहरहाल विपक्षी पार्टियां किसानों की हिमायत में इन पंचायतों का आयोजन करके यह बताने का प्रयास कर रही हैं कि वह इन कानूनों के खिलाफ किसानों के साथ हैं। इन विपक्षी पाटियों को यदि किसानों का साथ देना है तो वह अपनी पार्टी के बैनर तले इन पंचायतों का आयोजन न करके किसान संगठनों के बैनर तले ही किसानों को जागरूक करे तो केंद्र सरकार पर इसका प्रभाव पड़ सकता? वर्ना जो आरोप भाजपा के नेता लगा रहे हैं कि इस आंदोलन के पीछे विपक्षी पार्टियों का हाथ है। उन आरोपो को बल मिलेगा। इस आंदोलन का साा पक्ष पर कोई ऐसा प्रभाव नहीं पड़ेगा ताकि वह इन आंदोलित किसानों के हक में कोई सकारात्मक फैसला ले सके। केंद्र सरकार अपनी मनमानी से नीचे उतरने वाली नहीं है।