सैटेलाइट से निगरानी जरूरी

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जब भी कोई प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा खतरा बनती है या उससे बड़ी संख्या में जानें जाती हैं, तो हर कोई आपदा प्रबंधन के बारे में जानना चाहता है। उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने से हुई भीषण तबाही में जान-माल का बहुत नुकसान हुआ। उत्तराखंड में, जहां विश्व के सबसे संवेदनशील पारिस्थितिकीय तंत्रों में से एक हिमालय है, 2013 में भी केदारनाथ मंदिर के ऊपरी इलाके में ग्लेशियर टूटने से सैकड़ों जानें गई थीं। इस त्रासदी के संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि भारत में आपदा प्रबंधन कैसे काम करता है, इसके लिए कौन जिम्मेदार है और इसमें क्या-क्या शामिल है।

आपदा की परिभाषा है ‘किसी क्षेत्र में प्राकृतिक या मानवीय कारणों या हादसे या लापरवाही की वजह से होने वाली विनाशकारी घटना, जिसमें इंसानों की जान जाए या वे प्रभावित हों या संपत्ति को इतना नुकसान पहुंचे कि प्रभावित इलाके का समुदाय उसका सामना न कर पाए।’ इस शताब्दी के आने तक आपदा प्रबंधन का अर्थ इतना ही था कि आपदा की किसी घटना से निपटने के लिए कुछ संसाधनों को अलग से रखा जाए। व्यापक सिद्धांत यही था कि आपदा होने का इंतजार करो और फिर उस पर प्रतिक्रिया दो।

अक्टूबर 1999 में ओडिशा में सुपर साइक्लोन से गई जानों (10,000) और 26 जनवरी 2001 को भुज भूकंप में गई जानों (13,000-20,000) के बाद आपदा प्रबंधन पर पेशेवर दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस हुई। फिर 26 दिसंबर 2004 की सुनामी (10,000 से ज्यादा जानें गईं) ने इस पर और जोर दिया, जिसके बाद आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 अस्तित्व में आया।

यह अधिनियम राहत कार्य में संसाधन उपलब्ध कराने के लिए पूरी तरह से सेना व पुलिस पर निर्भरता वाले तरीके की जगह नई शासन संरचना लाया और तैयारी, रोकथाम, जल्द चेतावनी, क्षमता निर्माण, प्रतिक्रिया और बेहतर पुनर्निर्माण की अवधारणा आई। पहले आपदा प्रबंधन का मुख्य मंत्रालय कृषि मंत्रालय था, जिसे विशेष आपदा प्रबंधन विभाग के साथ गृह मंत्रालय को दे दिया गया।

आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत चार संस्थाएं बनाई गईं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) मुख्य निकाय है, जो आपदा प्रबंधन नीतियां बनाता है। राष्ट्रीय कार्यकारी समिति भारत सरकार के ऐसे मंत्रालयों के नामित सचिवों का समूह है, जो आपदा प्रबंधन में शामिल हैं। यह आपदा प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार द्वारा जारी निर्देशों का पालन सुनिश्चित करता है।

सुप्रशिक्षित राहत कार्य और प्रतिक्रिया संगठन बनाने के लिए नेशनल डिजास्टर रिलीफ फोर्स बनाई गई। इसमें विभिन्न केंद्रीय सैन्य पुलिस बलों से जनबल बारी-बारी आता रहता है। प्रत्येक यूनिट एक बल से बनाई जाती है, जैसे या अब ऐसी 16 यूनिटें बन चुकी हैं। चौथी संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान है, जो आपदा प्रबंधन विषय पढ़ाने वाले अन्य अकादमिक संस्थानों के साथ प्रशिक्षण और संबंधित शोध पर कार्य करती है।

आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत आपदा प्रबंधन संरचना में 36 राज्य या आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी हैं, जो बड़ी भूमिका निभाते हैं। सभी 750 जिलों में जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण भी हैं, जिनके चेयरमैन डिप्टी कमीश्नर होते हैं। राज्यों को भी की तर्ज पर बनाना जरूरी है, हालांकि 22 राज्यों ने ही अब तक ऐसा किया है।

सबसे जरूरी है कि हर केंद्रीय मंत्रालय और स्वतंत्र विभाग को अपनी आपदा प्रबंधन योजना विकसित करता है, जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना की मदद करे। ने आखिरी 2019 में जारी की थी। दिलचस्प यह है कि ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ के लिए गहन अध्ययन का विषय है और इसे संभालने के लिए दिशानिर्देश तीन महीने पहले ही जारी किए गए थे।

हालांकि, हर आपदा की परिस्थिति अनोखी होती है। जिन बड़े मुद्दों को संभाल रहा है, उनमें चेतावनी उपकरणों का विकास और स्थानीय समुदायों का प्रशिक्षण शामिल है। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल भी इस कार्यक्रम का जरूरी हिस्सा है और सरकार जल्दी चेतावनी देने की तकनीक को विस्तार देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।

पहाड़ी इलाकों के मामले में ज्यादा सैटेलाइट निगरानी और बड़े पैमाने पर सेंसर्स लगाने की आवश्यकता है, ताकि ग्लेशियरों के खिसकने और चट्‌टानों के निर्माण पर नजर रखी जा सके और समय से पहले चेतावनी मिल सके। भूकंप और बिजली कड़कने जैसे खतरे लगभग कोई चेतावनी नहीं देते। अब भारत में इस बारे में जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है कि सरकारी एजेंसियां तो जोखिम कम करने की दिशा में काम कर ही रही हैं, जोखिम वाले समुदाय खुद जोखिम कम करने में भूमिका निभा सकते हैं।

लेफ्टि. जनरल एसए हसनैन
(लेखक कश्मीर में 15 वीं कोर के पूर्व कमांडर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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