संविधान के चार खंभों में विधायिका सबसे महत्वपूर्ण है, जिसका संचालन राजनीतिक दलों के बहुमत से निर्धारित होता है। लेकिन साल 1950 के मूल संविधान में राजनीतिक दलों का कोई जिक्र ही नहीं था। साल 1951 के जन प्रतिनिधित्व कानून में पहली बार राजनीतिक दलों का जिक्र हुआ और फिर 1968 में चुनाव चिह्नों के आवंटन के व्यवस्थित नियम बनाए गए।
जनप्रतिनिधि यानी विधायक और सांसद के माध्यम से उत्तरदायी सरकार की व्यवस्था बनती तो जनता के लिए समानता, स्वतंत्रता और न्याय का सांविधानिक संकल्प जल्दी पूरा होता। लेकिन आज़ादी के बाद से ही संसदीय प्रणाली को राजनीतिक दलों द्वारा हाईजैक किए जाने के ट्रेंड से संविधान निर्माताओं के सपनों पर कुठाराघात हो गया। चुनावों में धन के बाहुल्य से दलों में बाहुबली और अपराधियों का वर्चस्व बढ़ता गया। 70 के दशक में संविद सरकारों की सफलता के लिए ‘आया-राम गया-राम’ की मंडी में विधायकों की नीलामी का जो शर्मनाक खेल पूरे देश में शुरू हुआ, उसका चलन बदस्तूर जारी है, बल्कि इसने आज ‘संस्थागत’ रूप धारण कर लिया है।
कानून तो आया, मगर नया खेल शुरू हो गया
ऐतिहासिक बहुमत मिलने पर सत्ता सुरक्षित करने के लिए राजीव गांधी ने 1985 में संविधान की दसवीं अनुसूची में संशोधन करके दलबदल विरोधी कानून लागू कर दिया। विधायक और सांसद यदि पार्टी से इस्तीफ़ा दें या फिर व्हिप का उल्लंघन करें तो उनकी सदस्यता खत्म करने के लिए इस क़ानून में प्रावधान किया गया था। इससे नेताओं का दलबदल का मर्ज़ तो कम हुआ, लेकिन उसके बाद एमएलए, एमपी दलों के बंधुआ गुलाम जैसे हो गए।
उधर जिन्हें कानून तोड़ना ही है, वे तो खरगोश की तरह स्मार्ट और छलांग लगाने में माहिर होते हैं। इसलिए बदलावों और सख्ती के बावजूद दलबदल क़ानून में अनेक सुराख कर लिए गए। इसकी शुरुआत पार्टियों के दो तिहाई विधायकों को तोड़कर या उन्हें विलय से फंसाने के माध्यम से हुई। उसके बाद विधायकों की बगावत से राज्यों में सरकारों को गिराने का खेल शुरू हो गया।
दलबदल के खेल को सफल बनाने के लिए थैलियों, रिजॉर्ट्स की पैकेज डील के साथ सरकारी एजेंसियों का भी दुरुपयोग होने लगा। दलों को छोड़कर जाने वाले विधायकों/सांसदों को कानून के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। लेकिन मणिपुर, कर्नाटक और मप्र के मामलों से साफ़ है कि अयोग्य घोषित हुए लोग उपचुनाव के जरिए जीतकर नियमों को ठेंगा दिखाने लगते हैं।
अयोग्यता के मामले में इसलिए फंसता है पेंच
विधायकों और सांसदों की अयोग्यता पर दसवीं अनुसूची के अनुसार अभी स्पीकर फैसला लेते हैं जो खुद भी राजनीतिक दल के टिकट पर ही चुनकर सदस्य बनते हैं। चुनावी सुधार के लिए बनी गोस्वामी समिति और विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि अयोग्यता के मामलों में राज्यपाल और राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की अनुशंसा के अनुसार फैसला लेना चाहिए। इन सुझावों को लागू करने के लिए दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर हुई थी।
राजनीतिक दलों और चुनावी व्यवस्था में सुधार के लिए विधि आयोग और चुनाव आयोग ने कई और भी सुझाव दिए हैं। इनके अनुसार दलों की फंडिंग और कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने के लिए संस्थागत क़ानून बनाने से दलों की जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ेगी। पर इन्हें जल्द लागू करने की इच्छाशक्ति किसी भी पार्टी या सरकार में नहीं है। दलों और चुनावों से संबंधित सभी सुधारों को सामूहिक तौर पर लागू किया जाएं तो सियासी खेल के नियम सुधरने के साथ अयोग्य घोषित लोगों का सदन में प्रवेश भी रुकेगा। इसके अलावा यदि अयोग्य लोग दोबारा चुनाव लड़ते हैं तो उपचुनाव के पूरे खर्च की वसूली उस प्रत्याशी से करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
नागरिकों को बनाना होगा ताकतवर
दलबदल के मर्ज़ को सिर्फ नियमों में बदलाव से रोकना मुश्किल है। इसलिए ऐसे नासूर के इलाज के लिए नागरिकों को ताकतवर बनाने के इको सिस्टम को दुरुस्त करने के प्रयास करने होंगे। पार्टियों का रजिस्ट्रेशन तो आसान है, लेकिन उनकी मान्यता रद्द करने के लिए चुनाव आयोग के पास समुचित शक्ति नहीं है। विधायकों व सांसदों के साथ राजनीतिक दलों की मान्यता और विघटन के लिए उनके आम सदस्यों की संख्या का रजिस्टर चुनाव आयोग के पास रहे तो दलबदल और पार्टियों के विलय के मामले में जनता की भूमिका बढ़ेगी। विधायकों की सामूहिक खरीद-फरोख्त पर जब अंकुश लगेगा, तभी सही अर्थों में जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता के शासन का लक्ष्य पूरा होगा।
सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले से बढ़ गई हैं उलझनें
कर्नाटक के विधायक ए.एच. विश्वनाथ के मामले में सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम फैसले से उलझनें और बढ़ गई हैं। स्पीकर ने विश्वनाथ को दसवीं अनुसूची के तहत दलबदल का दोषी करार दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उन्हें दोबारा विधायक बनने की मोहलत मिल गई थी। किंतु उपचुनाव में हारने पर येदुरप्पा सरकार ने विश्वनाथ का विधान परिषद में मनोनयन करके उन्हें मंत्री बना दिया।
कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले पर अब सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है जिसके अनुसार अनुच्छेद 164 के तहत सदन के बकाया कार्यकाल यानी साल 2021 तक विश्वनाथ की अयोग्यता जारी रहेगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एक नया वर्गीकरण हो गया है। इससे दलबदल करने पर अयोग्य घोषित लोग उपचुनाव में विधायक बनकर तो बकाया कार्यकाल में मंत्री बन सकते हैं, लेकिन मनोनयन के रास्ते से विधायक बनने वालों पर अयोग्यता के प्रावधान लागू रहेंगे और वे मंत्री नहीं बन सकते।
दलबदल विरोधी क़ानून के अहम पड़ाव
🔴1967 -72 {हरियाणा के विधायक गयालाल ने एक पखवाड़े में तीन बार दल बदल कर ‘आया राम गया राम’ की संस्कृति शुरू की। 5 साल में 4000 जनप्रतिनिधियों में से 50 फीसदी ने दलबदल किया। वाई बी चव्हाण समिति का गठन।
🔴1968 {चव्हाण समिति की रिपोर्ट पर संसद में बिल पेश लेकिन वह क़ानून नहीं बन सका।
🔴1985 {52वें संविधान संशोधन से 10 वीं अनुसूची जोड़ी गई। दलबदल विरोधी कानून अस्तित्व में आया।
🔴1992 {सुप्रीम कोर्ट ने ‘किनहोटो होलोहॉन फैसला’ सुनाया जिसके तहत स्पीकर का आदेश न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में आया।
🔴2004 {91वां संविधान संशोधन लागू किया गया। दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य सदस्यों के मंत्री पद पर रोक।
दलबदल क़ानून में सुधार के लिए प्रयास
🔴1990 {दलबदल के दायरे को सीमित करने के लिए क़ानून में संशोधन के लिए दिनेश गोस्वामी समिति ने सुझाव दिए
🔴1998 {स्वैच्छिक त्यागपत्र पर हलीम समिति ने अपने सुझाव दिए।
🔴1999 {विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में व्हिप को सीमित करने के सुझाव दिए गए।
विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान विशेषज्ञ हैं, ये उनके निजी विचार हैं)