बच्चों की तरह जिद्दी और अड़ियल

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यूरोप की एक फिल्म में प्रस्तुत किया गया कि बच्चों के एक हॉस्टल में आधी रात आग लग जाती है। चुस्त चौकीदार सब बच्चों को बचा लेता है। आधी रात शहर से मदद आने में समय लगता इसलिए वह बच्चों को निकट ही स्थित वृद्धाश्रम में ले जाता है। उम्रदराज और परिवार द्वारा नकारे गए लोगों को इस आश्रम में रखा जाता है। निर्देशक गुरुदेव भल्ला ने जयंतीलाल गड़ा द्वारा निर्मित फिल्म ‘शरारत’ में ऐसे ही आश्रम का विवरण प्रस्तुत किया है।

फिल्म के नायक द्वारा तेज गति से कार चलाने के कारण एक व्यक्ति घायल हो जाता है। न्यायाधीश उसे यह दंड देते हैं कि वह वृद्धाश्रम में 1 वर्ष तक उम्रदराज लोगों की सेवा करें। अभिषेक बच्चन अभिनीत पात्र वृद्धाश्रम जाता है, जहां सबसे अधिक उम्र वाले व्यक्ति अमरीश पुरी अभिनीत पात्र से उसका टकराव होता है। अमरीश पुरी सख्त मिजाज अनुशासन के प्रति शपथबद्ध व्यक्ति हैं। अमीरजादा बिगलैड़ अभिषेक बच्चन अभिनीत पात्र इस आश्रम में भी अपने मिजाज के अनुरूप उद्दंड रहता है। धीरे-धीरे अमीरजादे के दिल में मानवीय करुणा उत्पन्न होने लगती है।

दंड विधान में सुधार के अवसर दिए जाने चाहिए। इस विषय पर शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ सर्वकालिक महान फिल्म है। अंग्रेजी नाटक ‘द प्रीस्ट एंड द कैंडलस्टिक’ भी क्षमा और सुधार के अवसर को ही रेखांकित करने वाली रचना है। चर्च के एक कक्ष में कोई भी व्यक्ति अपने अपराध को स्वीकार कर सकता है और प्रीस्ट उस व्यक्ति की पहचान को हमेशा गुप्त ही रखता है। के भाग्य राज की अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘आखिरी रास्ता’ में कन्फेशन से संबंधित सीन बड़ा महत्व रखता है। 29 जनवरी को प्रकाशित मेरे लेख में अजन्मे शिशु की व्यथा कथा प्रस्तुत करने वाली फिल्म का नाम था ‘एस इन हेवन सो ऑन अर्थ’।

बहरहाल इस लेख में प्रस्तुत वृद्धाश्रम की शांति भंग हो जाती है, जब शरारती बच्चों को वहां रखा जाता है। उम्र की तीन अवस्थाएं मानी जाती हैं बचपन, जवानी और बुढ़ापा। बचपन और बुढ़ापे में समानता है। कुछ लोग अभाव के कारण बचपन में ही बूढ़े हो जाते हैं और कुछ उम्रदराज लोग बच्चों की तरह जिद्दी और अड़ियल हो जाते हैं। शैलेंद्र कहते हैं…‘लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख कर रोया, सजन रे झूठ मत बोलो…वहां पैदल ही जाना है।’

एक कथा इस तरह है कि पिता अपने पुत्र को साथ लिए अपने बुजुर्ग पिता को वृद्धाश्रम छोड़ने जा रहा है। पुत्र कहता है कि पिताजी जब आप उम्रदराज होंगे तो वह भी उन्हें उसी तरह वृद्धाश्रम छोड़ देगा। उम्रदराज लोगों को कभी-कभी महानगर में काम करने वाले लोग अपने घर ले आते हैं, उनका असली मकसद तो यह होता है कि उन्हें अपने बच्चों की देखभाल के लिए बिना वेतन के सेवक मिल जाएंगे। एन एन सिप्पी ने संजीव कुमार और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म ‘जिंदगी’ बनाई थी। इसी विचार पर अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म सफल रही है। अमिताभ और हेमा मालिनी फिल्म ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ अत्यंत रोचक है।

बहरहाल उम्रदराज व बच्चों के साथ रहने वाली फिल्म में धीरे-धीरे बच्चों और बूढ़ों के बीच स्नेह का रिश्ता बन जाता है। क्लाइमेक्स में एक उम्रदराज व्यक्ति की मृत्यु की बात बच्चों से गुप्त रखकर वृद्ध लोग शव को मिट्टी के सुपुर्द करने आते हैं परंतु बच्चे वहां पहले से ही मौजूद हैं। अत्यंत मर्मस्पर्शी सीन है। इसी विषय में कुमार अंबुज की ताजा रचना है….‘दु:ख के तारे, (किसान आंदोलन) दु:ख के तारामंडल पर एक साथ यात्रा करते हैं, जीवनाकाश में इकट्ठे दु:ख बना लेते हैं। दु:ख के मारे हुए आदमी, दु:ख की फटकार से जिंदा हो जाते हैं…।’

जयप्रकाश चौकसे
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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