तीन दशक पहले दुनियाभर में एड्स का कहर फैला हुआ था। उस समय अफ्रीका में एक दिन में 5000 लोगों की मौतें हो रही थीं। एड्स के खिलाफ जब दवाई मिली, तब फार्मासूटिकल कंपनियों ने उनकी कीमत लगभग 8000 डॉलर प्रतिवर्ष रखी। मुनाफाखोरी के उस माहौल में भारत की सिप्ला कंपनी के युसुफ हमीद ने दुनिया की बड़ी कंपनियों को चुनौती देते हुए संकल्प लिया कि वह सालभर की दवाई 350 डॉलर में उपलध करवाएंगे। उनकी इस पहल से दुनियाभर में भारत की फार्मा इंडस्ट्री को बहुत सम्मान मिला। आज कोरोना काल में, क्या भारत एड्स के समय की नैतिक भूमिका निभा सकता है? अब तक के संकेत मिले-जुले हैं। नया साल खुशखबरी से शुरू हुआ, कोरोना की वैक्सीन आ गई। भारत में दो वैक्सीन को सरकारी हरी झंडी मिली है। एक वैक्सीन (एस्ट्रा-ज़ेनेका द्वारा बनाई गई कोवीशील्ड) अन्य देशों में भी इस्तेमाल हो रही है, खासकर ब्रिटन में। इसे ऑसफोर्ड विश्वविद्यालय में विकसित किया गया और इसका उत्पादन भारत की कंपनी, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया भी कर रही है। दूसरी वैक्सीन (कोवैक्सिन) को भारत की हैदराबाद स्थित कंपनी, भारत बायोटेक ने विकसित किया है। इसे लेकर विवाद उत्पन्न हुआ है। जब नई वैक्सीन तैयार की जाती है, तो उसे तीन चरणों से गुजरना पड़ता है।
कोवैक्सिन का तीसरे चरण का ट्रायल अभी चल रहा है, फिर भी सरकारी हरी झंडी मिली है। मुख्य सवाल हैं कि इसमें जल्दबाज़ी तो नहीं की गई? साथ ही, प्रक्रिया की पारदर्शिता से सवाल जुड़ा है। कोवैक्सिन में तो तीसरे चरण का डेटा अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। एक तरह से, लोगों को टीका लगाते-लगाते उसकी टेस्टिंग हो रही है। सरकार की भाषा में इसे ‘लिनिकल ट्रायल मोड’ में दिया जा रहा है। क्या पहले कभी ऐसा हुआ है कि तीसरे चरण के परिणामों से पहले ही आम जनता में वैक्सीन का इस्तेमाल हुआ हो? कुछ वैज्ञानिकों का कहना कि जब अफ्रीका में इबोला वायरस तेजी से फैल रहा था, तब भी फेज़ तीन के परिणाम आने से पहले ही उसकी वैक्सीन को इस्तेमाल करने के अनुमति दे दी गई थी। लेकिन शायद कोरोना वायरस से उत्पन्न स्थिति कुछ अलग है, क्योंकि कोरोना के खिलाफ अन्य ऐसी वैक्सीन हैं (जैसे कि कोविशील्ड और फाइजर की वैक्सीन जिसे अमेरिका में अनुमति मिली है), जहां तीसरे फेज़ के ट्रायल के परिणाम उपलध हैं। इबोला और नीपा वायरस के समय इस तरह विकल्प उपलध नहीं थे। कोविशील्ड के तीसरे चरण के परिणाम उपलब्ध हैं, और एक तरफ इस बात की खुशी है कि कोविशील्ड वैक्सीन भारत में ही बन रही है। लेकिन यहां भी सवाल हैं। कोविशील्ड के बारे में तीसरे चरण के डेटा को साझा करने की मांग है। इन परिणामों को साझा करने से हमें उसकी ‘एफिकैसी’ के बारे में पता चलेगा (यानी, कि वह किस हद तक प्रभावी है)।
दूसरा डर है कि हमे ट्रायल में हुए ‘एड्वर्स इवेंट्स’, यानी प्रतिकूल घटनाओं (जैसा कि तमिलनाडु में एक वालंटियर के साथ हुआ) के बारे में भी डेटा नहीं दिया गया। इसके अलावा, कोविशील्ड की कीमत पर भी सवाल है। सरकार को पहली 10 करोड़ वैक्सीन 200 रुपए प्रति वैक्सीन की दर से मिलेंगी। लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट, जो एक निजी कंपनी है, कोशिश कर रही है कि निजी सेक्टर में वह इसे 1000 रुपए में बेचे। कुछ लोगों का तर्क है कि वैक्सीन रिसर्च के लिए यह उनका एक तरह से हक़ है। लेकिन वैक्सीन पर रिसर्च ऑसफोर्ड यूनिवर्सिटी ने की है। एस्ट्रा-ज़ेनेका ने भी वादा किया है कि जब तक कोरोना को ‘महामारी’ माना जाएगा, तब तक वह इसे बिना मुनाफ़े पर बेचेगी। सीरम इंस्टीट्यूट को इसपर खुद कितना खर्च करना पड़ा है, यह जानकारी नहीं है। इसके अलावा, पीएम केयर्स कोष से भी वैक्सीन बनाने के लिए 100 करोड़ रुपए का समर्थन दिया गया था। आज के दौर में वैक्सीन के दामों और निजी कंपनियों की भूमिका के मुद्दे को उठाने वाले आदर्शवादी कहलाएंगे, हालांकि यह मानवता का सवाल है। 1950 के दशक में जोनस साल्क ने पोलियो वैक्सीन बनाई, तब उनसे पूछा गया कि इसका पेटेंट किसके पास है। उनका यह वीडियो यू-ट्यूब पर उपलध है। इस सवाल से वे हैरान-से लगे और कहा, ‘लोगों के पास है। क्या आप सूरज को पेटेंट कर सकते हैं?’
रीतिका खेड़ा
( लेखिका अर्थशास्त्री हैं और दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं, ये उनके निजी विचार हैं)