इस किस्से पर शायद आप यकीन नहीं करें। पर है सच। मुंबई के एक मशहूर उद्योगपति अपने मित्रों के सहित स्वीट्जरलैंड के शहर जिनेवा के पांच सितारा होटल से चैक आउट कर चुके थे। सीधे एयरर्पोट जाने की तैयारी थी। तीन घंटे बाद मुंबई की फ्लाइट से लौटना था। तभी उनके निजी सचिव का मुंबई दफ्तर से फोन आया। जिसे सुनकर ये सज्जन अचानक अपनी पत्नी और मित्रों की ओर मुड़े और बोले, ‘आप सब लोग जाईए। मैं देर रात की फ्लाइट से आउंगा’। अचानक उनका यह फैसला सुनकर सभी चौक गये। उनसे इसकी वजह पूछी, तो उन्होंने बताया कि, ‘अभी मेरे दफ्तर में कोई महिला आई है, जिसका पति कैंसर से पीड़ित है। उसे एक मंहगे इंजेक्शन की जरूरत है। जो यहीं जिनेवा में मिलता है। मैं वो इंजैक्शन लेकर कल सुबह तक मुबई आ जाऊंगा। परिवार और साथी असमंजस में पड़ गये, बोले इंजेक्शन कुरियर से आ जायेगा, आप तो साथ चलिए। उनका जबाव था, ‘उस आदमी की जान बचाना मेरे वक्त से ज्यादा कीमती है’।
इन्हीं सज्जन का गोवा में भी एक बड़ा बंगला है। जिसके सामने एक स्थानीय नौजवान चाय का ढाबा चलाता था। ये सज्जन हर क्रिसमस की छुट्ट्यिों में गोवा जाते थे। जितनी बार वे कोठी में घुसते और निकलते, वह ढाबे वाला दूर से इन्हें हाथ हिलाकर अभिवादन करता। दोनों का बस इतना ही परिचय था। एक साल बाद जब वे छुट्ट्यिों में गोवा पहंचे तो दूर से देखा कि ढाबा बंद है तो पूछताछ की। उनके बंगले के चौकीदार ने बताया कि ढाबे वाला कई महीनों से बीमार है और अस्पताल में पड़ा है। इन्होंने फौरन उसकी खैर-खबर ली और मुंबई में उसके पुख्ता और बढ़िया इलाज का इंतजाम किया।
भगवान की इच्छा, पहले मामले में उस आदमी की जान बच गई। वो दोनों पति-पत्नी एक दिन इनका धन्यवाद करने इनके दफ्तर पहुंचे। स्वागत अधिकारी ने इन्हें फोन पर बताया कि दोनों पति-पत्नी आपको धन्यवाद करने आये हैं। इनका जबाव था कि, ‘उनसे कहो कि मेरा नहीं, ईश्वर का धन्यवाद करें‘ और वे उनसे नहीं मिले।
गोवा वाले मामले में, ढाबे वाला आदमी, बढ़िया इलाज के बावजूद मर गया। जब इन्हें पता चला, तो उसकी विधवा से पुछवाया कि हम तुम्हारी क्या मदद कर सकते हैं? उसने बताया कि मेरे पति दो लाख रूपये का कर्जा छोड़ गये हैं। अगर कर्जा पट जाये, तो मैं ढाबा चलाकर अपनी गुजर-बसर कर लूंगी। उसकी वह मुराद पूरी हुई। वो भी बंगले में आकर धन्यवाद करना चाहती थी। इन्होंने उसे भी वही जवाब भिजवा दिया कि मेरा नहीं भगवान का धन्यवाद करो।
और यही है, ‘नेकी कर, दरिया में डाल’। उन सज्जन का नाम है, कमल मोरारका। जो एक जमाने में चंद्रशेखर सरकार के प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री भी रहे। उनकी जिंदगी से जुडे़ ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जिन्हें उन्होंने कभी नहीं सुनाया, पर वो लोग सुनाते हैं, जिनकी उन्होंने मदद की। उनकी मदद लेने वालों में देश के तमाम साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी, पत्रकार, राजनेता व अन्य सैकड़ों लोग हैं, जो उन्हें इंसान नहीं फरिश्ता मानते रहे हैं।
दरअसल भारत के पूंजीवाद और पश्चिम के पूंजीवाद में यही बुनियादी अंतर है। पश्चिमी सभ्यता में धन कमाया जाता है, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे और ऐश्वर्य प्रदर्शन के लिए जबकि भारत का पारंपरिक वैश्य समाज ‘सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धांत को मानता आया है। वो दिन-रात मेहनत करता रहा और धन जोड़ता रहता है। पर उसका रहन-सहन और खान-पान बिलकुल साधारण होता था। वो खर्च करता था तो सम्पत्ति खरीदने में या सोने-चांदी में। इसीलिए भारत हमेशा से सोने की चिड़िया रहा है। दुनिया की आर्थिक मंदी भी भारत की अर्थव्यवस्था को अधिक झकझोर नहीं पाती है जबकि उपभोक्तावादी पश्चिमी संस्कृति में क्रेडिट कार्ड की डिजिटल इकॉनौमी ने कई बार अपने समाजों को भारी आर्थिक संकट में डाला है।
अमेरिका सहित तमाम देश आज खरबों रूपये के विदेशी कर्ज में डूबे हैं। वे सही मायने में चार्वाक के अनुयायी हैं, ‘जब तक जियो सुख से जियो, ऋण मांगकर भी पीना पड़े तो भी घी पियो‘। यही कारण है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था की नीतियों को भारत का पारंपरिक समाज स्वीकार करने में अभी भी हिचक रहा है। उसे डर है कि अगर हमारी हजारों साल की परंपरा को तोड़कर हम इस नई व्यवस्था को अपना लेंगे, तो हम अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक माफियाओं के जाल में फंस जायेंगे। अब यह तो वक्त ही बतायेगा कि लोग बदलते हैं, कि नीतियां। कमल मोरारका आधुनिक वक्त में भी मानवीय संवेदनशीलता भी बेहद संवेदनशील थे। कमल मोरारका जैसी शख्शियत लोगों के सुखदुख में मदद की संवेदक मशाल थी। ऐसे लोगों की तादाद अब उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
विनीत नारायण
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)