आंत्रप्रेन्योर्स को छप्पर फाड़कर न दें

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बाजार में कई तरह के मास्क मिलते हैं, लेकिन बच्चे के लिए सही मास्क तलाशना अक्सर मुश्किल होता है। साथ ही, बच्चों की अलग पसंद होती है, जो कई बार सभी जगह उपलब्ध नहीं होती। चार वर्षीय ईथन का उदाहरण देखें, जिसने अपनी मां शर्ली नेसामनी से मांग की कि उसे फायर ट्रक थीम वाला मास्क चाहिए। उन्हें दुकानों पर ऐसा मास्क नहीं मिला।

इसलिए उन्होंने खुद बनाने का फैसला लिया। आजकल सुरक्षा और टिकाऊपन ज्यादातर माता-पिता की प्राथमिकता होती है और मैं ऐसे माता-पिता को जानता हूं जो बच्चों के लिए खुद उत्पाद बनाते हैं। बेंगलुरु की शर्ली ने नया मास्क बनाया और उसे पहने हुए ईथन की तस्वीर सोशल साइट्स पर भी डालीं। दोस्तों और रिश्तेदार के उत्साहवर्धन पर उन्होंने डिजाइन पोस्ट कीं और उनका काम जान-पहचान के बाहर भी पहुंचने लगा।

यह सच है कि अच्छी चीजें सभी स्वीकारते हैं लेकिन याद रखें कि वे धीरे-धीरे बढ़ती हैं। जब कोई बिजनेस अचानक तेजी से बढ़े तो हमेशा जांच करें कि ऐसा क्यों हुआ। शायद यह जिज्ञासा हमें जवाब दे कि हम वाकई खुशकिस्मत हैं या ठगे गए हैं। खुद को बैंकर, नौकरी देने वाला या ऑनलाइन विक्रेता बताकर सायबर ठगी करने वाले अब ‘ग्राहक’ बनकर भी ठग रहे हैं।

अहमदाबाद निवासी होम शेफ मोनाली बाग मेहता का उदाहरण देखें, जो बंगाली और अन्य व्यंजन बनाती हैं। पिछले साल पति की नौकरी जाने के बाद मोनाली ने कैटरिंग सर्विस शुरू की और ग्राहकों तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया पर जानकारी साझा की। उन्हें एक अंजान नंबर से किसी व्यक्ति का फोन आया। वह बोला कि वह 15 दिन के लिए 20 लोगों के खाने का ऑर्डर देना चाहता है। उसने खुद को आर्मी से जुड़ा बताया। उसकी आवाज में आत्मविश्वास था। वह कुछ दिन पूछताछ करता रहा। ऑर्डर मिलने पर मोनाली ने इस गुरुवार बाजार से सामग्री लाकर 20 लोगों का खाना तैयार किया।

रात 9 बजे उसी व्यक्ति ने फोन कर खाने और पेमेंट मोड के बारे में पूछा। उसने कैश, यूपीआई या वॉलेट की जगह बैंक ट्रांसफर पर जोर दिया। मोनाली बैंक खाते की जानकारी वाले चेक की तस्वीर भेजने तैयार थीं, लेकिन वह डेबिट कार्ड की दोनों तरफ की फोटो मांगने लगा। तब मोनाली को शक हुआ। उन्होंने कार्ड की फोटो भेजने से मना कर दिया। व्यक्ति ने फोन रख दिया और कभी खाना लेने नहीं आया। शुक्रवार की सुबह मोनाली ने खाना गरीबों में बांट दिया। कुछ लोग बिजनेस करते हैं क्योंकि उनमें जुनून है, जबकि कुछ बिजनेस करते हैं क्योंकि उनकी मजबूरी होती है। लेकिन दोनों ही ऐसा बिजनेस करते हैं, जो कुछ पैसा दे। लेकिन बिजनेस में तुरंत छप्पर फाड़ कमाई की उम्मीद करना गलत है।

मैं लोगों के बारे में नहीं जानता, लेकिन पुलिस यह समझ गई है कि सायबर बदमाश ठगी के नए-नए तरीके ला रहे हैं। बेंगलुरु पुलिस ने आम सायबर अपराधों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए एक एनजीओ के सहयोग से शॉर्ट फिल्में बनाई हैं। इन छह शॉर्ट फिल्मों की थीम क्यूआर कोड स्कैन, डेटिंग एप स्कैन, ओटीपी/क्रेडिट कार्ड स्कैम, मानसिक रोग/सायबर बुलिइंग और मॉर्फिंग (तस्वीरों से छेड़छाड़) हैं। वीडियो ठगे जाने के बाद उठाए जाने वाले कदमों और शिकायत के लिए पुलिस से संपर्क के तरीकों के बारे में भी बताते हैं। फंडा यह है कि कलियुग में अब ईश्वर शायद सभी आंत्रप्रेन्योर्स को छप्पर फाड़कर न दें। सावधान रहें और ‘ईश्वर का उपहार’ स्वीकारने से पहले अच्छे से जांच-परख लें।

बुजुर्गों की बद्धिमत्ता और अनुभव ही काम आते हैं: सागर, मध्य प्रदेश की अर्चना दुबे ने बतौर प्राइमरी टीचर 38 साल, दो महीने और 25 दिन नौकरी की और 31 मार्च 2020 को रिटायर हुईं। वे किसी और ऊंचे स्तर पर जा सकती थीं लेकिन वे हमारे पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की बात पर विश्वास करती थीं। डॉ कलाम ने यह बात मुझसे एक संवाद में भी दोहराई थी कि एक बच्चे के चरित्र निर्माण में तीन लोगों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, जिसमें शामिल हैं मां, पिता और प्राइमरी शिक्षक। अर्चना भी इस पर विश्वास करती थीं। वे एक साथ दो चीजों में योगदान दे रही थीं। वे जिन बच्चों के संपर्क में आती थीं, उन्हें ज्ञान देने के साथ उनके चरित्र का आधार भी तैयार कर रही थीं। अपने कॅरिअर की शुरुआत 150 रुपए प्रतिमाह वेतन से करने वाली अर्चना का ट्रांसफर कई छोटेछोटे गांवों में हुआ। उन्होंने वहां जाकर बच्चों का पढ़ाया जहां आमतौर पर उन जैसे अच्छे शिक्षक जाना नहीं चाहते। वे रोजाना उन छोटे-छोटे गांवों का सफर करती थीं और मौसम की मार झेलते हुए भी जनगणना तथा सर्वे जैसे हर सरकारी काम में शामिल होती थीं।

अब आते हैं 31 मार्च 2020 पर। कम से कम इस दिन तक तो उन्हें जानकारी नहीं दी गई थी कि वे रिटायर हो रही हैं। स्वाभाविक है कि लॉकडाउन की वजह से उनका विदाई समारोह भी नहीं हुआ था। कुछ समय बाद उन्हें वॉट्सएप पर रिटायर होने का लेटर मिला। लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनकी मशक्कत तो अब शुरू होगी। पिछले नौ महीनों से उन्हें पेंशन नहीं मिली है, न ही अन्य सेटलमेंट हुए हैं। लॉकडाउन के बाद से पिछले 6 महीनों में उन्होंने और उनके पति ने संबंधित कार्यालय के चक्कर लगाए लेकिन बिना ‘लाभ’ (आप इसका अर्थ समझ सकते हैं) के कोई काम नहीं करना चाहता था। कुछ अधिकारी कहते थे कि वे खुशकिस्मत हैं कि कुछ ही महीनों में कागजी कार्यवाही होने लगी, वरना कई ऐसे लोग हैं, जिन्हें पांच-पांच साल पेंशन नहीं मिलती। याद रखें कि आज तक अर्चना के खाते में पेंशन का पैसा नहीं आया है। जब उन्होंने सीएम हेल्पलाइन पर शिकायत की तो अधिकारी नाराज हो गए और कहने लगे कि लाभ पाने के लिए शिकायत वापस ले लो।

यह सिर्फ अर्चना दुबे की कहानी नहीं है, उन जैसे सैकड़ों लोग हैं जो रिटायरमेंट के बाद मदद करने वाली पेंशन, पीएफ और पीपीएफ पाने के लिए संघर्ष करते हैं। यह उनका ही पैसा होता है जो मुश्किल वक्त में काम आता है। कहीं न कहीं हमारे अधिकारियों, फिर वे सरकारी हों या गैर-सरकारी, की राय इसपर कुछ अलग होती है। सभी का न सही, पर ज्यादातर का रवैया ‘एजिज़्म’ वाला ही रहता है। और यह रवैया तेजी से फैल रहा है। ‘एजिज़्म’ ऐसी प्रवृत्ति है जिसमें बुजर्गों को ध्यान के लायक न समझकर कमजोर मानते हैं। यह रवैया कुछ बहुओं में सास-ससुर के खिलाफ, बड़े पद पर बैठे जूनियर्स में उन सीनियर्स के खिलाफ देखा जा सकता है, जिन्होंने उन संगठनों का निर्माण तब किया था, जब ये जूनियर्स आए भी नहीं थे। फेहरिस्त बहुत लंबी है। बतौर युवा राष्ट्र हमें बुजुर्गों के साथ समान पूर्वक व्यवहार करने के लिए एक साझा दयालुता और शिष्टता में निवेश की जरूरत है। दुर्भाग्य से, बुजुर्गों के साथ समानपूर्वक व्यवहार करने की बजाय हम उन्हें और समाज व राष्ट्र के निर्माण में उनके योगदान को नकार देते हैं। फंडा यह है कि हमारे देश पर ‘एजिज़्म’ को हावी न होने दें। संकट में बुजुर्गों की बद्धिमत्ता और अनुभव ही काम आते हैं, यहां तक कि सरकार के लिए भी।

एन. रघुरामन
(लेखक मैनेजमेंट गुरु हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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