भ्रष्टाचार के दानव ने पीस डाला मानव

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भ्रष्टाचार के लेंटर’ ने मुरादनगर में 25 लोगों को मार डाला और लगभग इतने ही लोगों के हाथ-पैर तोड़कर, सिर फोड़कर अस्पताल पहुंचा दिया। मुरादनगर के गांव उखलारसी के श्मशान में मात्र ढ़ाई महीने पहले बनी गैलरी का लेंटर पहली बारिश भी झेल नहीं पाया और भरभराकर गिर पड़ा। जिस समय हादसा हुआ उस समय गैलरी में 40-50 लोग थे, जो एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार में शामिल होने आये थे। अचानक आई बारिश के चलते लोग गैलरी में आये, उन बेचारों को पता नहीं था कि वे बारिश से तो बच जाएंगे लेकिन भ्रष्टाचार के लेंटर से अपने प्राण नहीं बचा पाएंगे। इस प्राणलेवा गैलरी के निर्माण में घटिया माल लगाये जाने की बाकायदा शिकायत की गई थी। चूंकि ठेका दिलाने के पीछे कोई मजबूत राजनीतिक सिफारिश थी इसलिए ‘कमजोर निर्माण’ की ओर से मुंह फेर लिया गया और दु:खद हादसा हो गया। अब जांच के नाम पर लकीर पीटने का नाटक होगा, जिसमें सच सामने आ ही जायेगा इस बात की गारंटी भ्रष्ट व्यवस्था में कोई नहीं दे सकता है।

यूं तो मुख्यमंत्री ने दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की बात कही है लेकिन पूर्व में जिन छोटे-बड़े हादसों में जो अधिकारी-कर्मचारी-ठेकेदार दोषी पाये गये थे, उन पर कोई बहुत बड़ी कार्रवाई का इतिहास उपलब्ध नहीं है। लोग यह बात गलत नहीं कहते हैं कि लगभग सभी सरकारी विभागों के सप्लायर और ठेकेदार किसी न किसी राजनेता के आदमी होते हैं या फिर किसी सरकरी अफसर के दूरपास के रिश्तेदार- नगरपालिकाओं-नगर निगमों में तो सभासद-पार्षद अपनी फर्म बनाकर जमकर ठेकेदारी करते हैं। कुछ प्रतिशत ऐसे भी ठेकेदार होते हैं, जो किसी नेता की सिफारिश पर ठेका नहीं पाते हैं। लेकिन उनकी सैटिंग विभाग के लर्कों से लेकर अफसरों तक सभी के साथ होती है। सबकी जेब में अपने-अपने हिस्से का लिफाफा पहुंच जाता है। सरकार भ्रष्टाचार के प्रति कितनी गंभीर है इस बात को परखने के लिए हंडिया का एक चावल देख लेना ही पर्याप्त है। लखनऊ विकास प्राधिकरण में एक समय मकान आवंटन घोटालों की जांच सीबीआई ने की और 35 अफसरों को दोषी ठहराया। लेकिन शासन ने उन अफसरों पर कार्रवाई करने के बदले उन्हें प्रमोशन दे दिया।

ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं कि गरीब और असहाय नागरिकों से केस जीत लेने वाले विकास प्राधिकरण और नगर निगम-नगर पालिकएं, बिल्डरों के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। केस को कमजोर करके स्वैच्छिक हार स्वीकार करने वाले तमाम विभाग बड़े-बड़े बिल्डरों को कानूनन लाभ पहुंचाने का खेल करते पाये जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में हर सीट का, हर अफसर का, हर काम का रेट फिस है। यह परपरा पुरानी है और आज भी यह खूब फलफूल रही है। निर्माण के ठेकों में 30-40 प्रतिशत रिश्वत चलती है, 10-15 प्रतिशत ठेकेदार भी कमाता है। इसका सीधा सा मतलब है निर्माण में मात्र 40-50 प्रतिशत माल ही लगता है। यही कारण है कि हादसे होते रहते हैं, लोग मरते रहते हैं। थोड़ी बहुत चीख चिल्लाहट होती है, जांच का नाटक होता है फिर सब कुछ शांत और सामान्य हो जाता है। राजनीति और अफसरशाही मिलकर नवनिर्माणों की नींव की खोखली और भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत कर रही हैं।

बात तो लगभग दो दशक पुरानी है- लेकिन बात तो है ही। बात ये है कि इंदिरापुरम में जीडीए बिल्डिंगें बना रहा था कि एक पूरा ब्लॉक ही ढह गया, जिसका ठेका जीडीए के ही एक अफसर के बहुत करीबी रिश्तेदार के पास था। ब्लॉक ढहने का परिणाम यह हुआ कि जीडीए के फ्लैट बिकने बंद हो गये। तोड़ निकाला गया और जीडीए ने अपने ब्लॉक के ब्लॉक प्राइवेट बिल्डर्स को बेच दिये और उन्होंने उन्हें टिपटॉप कर लोगों को लुभाया और मोटा मुनाफा कमाया। भारत में भ्रष्टाचार चरम पर है। हमारा देश नैतिक मूल्यों और आदर्शों का कब्रिस्तान बन गया है। सरकारी दफ्तर रिश्वतखोरी का बड़ा अड्डा बने हुए हैं। राज्य सरकारों के ऑफिसों में रिश्वतखोरी का खुल्ला बोलबाला है। सुधार की संभावना से इंकार तो नहीं किया जा सकता। अपवाद न हों ऐसा भी नहीं है। अगर अपने गाजियाबाद की बात करें तो नगर निगम में बाबा हरदेव सिंह और अजय शंकर पांडेय ने अपने मुय नगर आयुक्त पद के कार्यकाल में रिश्वत को शून्य पर लाकर खड़ा कर दिया था। सब कुछ हो सकता है यदि शीर्ष अधिकारी ठान लें और नेता सरकारी काम में दखल देना बंद कर दें तो। लेकिन ऐसा हो नहीं पाएगा, योंकि ऐसा कोई चाहता कहां है?

राकेश शर्मा
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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