भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकारें आजकल दिखावटी दंगल में व्यस्त है। दोनों अपनी-अपनी जनता को यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि हम आतंकवाद को खत्म करके रहेंगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान यह कहने पर अड़े हुए हैं कि उनका या उनकी सरकार का आतंकी गतिविधियों से कुछ लेना-देना नहीं है और उन्होंने अब फिर से हाफिज सईद के संगठनों– जमात-उद-दावा और फलाहे-इंसानियत पर प्रतिबंध लगा दिया है।
इस प्रतिबंध की घोषणा पिछले साल फरवरी में एक अध्यादेश के जरिए हुई थी। अब उस अध्यादेश की अवधि समाप्त होने पर उसे दुबारा लागू किया गया है। यहां सवाल यह उठता है कि इन प्रतिबंधों का महत्व क्या है ? ये संगठन और इनके सरगना पाकिस्तान में अपना काम खुले आम करते हैं और सरकारें उनकी अनदेखी करती रहती हैं।
किसी की हिम्मत नहीं पड़ती कि वह इनके खिलाफ बोले। सरकार और फौज का अदृश्य वरद-हस्त इनके सिर पर रहता है। यदि अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण इन संगठनों के साथ कुछ सख्ती बरती जाती है तो ये तुरंत अपना नाम बदलकर काम करने लगते हैं।
आश्चर्य यह है कि पाकिस्तानी सरकार ने जमात-उद-दावा पर तो प्रतिबंध लगाया लेकिन जैशे-मुहम्मद के बारे में वह मौन क्यों है ? क्या उसे पता नहीं कि सुरक्षा परिषद की चीन समेत पांचों महाशक्तियों ने पुलवामा हत्याकांड पर अपना रोष जाहिर किया है और पाकिस्तान का नाम लिए बिना उसकी कड़ी भर्त्सना की है ? असलियत तो यह है कि पाकिस्तानी फौज जब तक भारत-विरोधी आतंकियों का सफाया करने का दृढ़ संकल्प नहीं लेगी, इमरान या नवाज कुछ नहीं कर सकते। उनकी खुद की जीवन-लीला फौज पर निर्भर है। वे आतंक का जबानी विरोध इसलिए करते हैं कि महाशक्तियां पाकिस्तान पर कहीं आर्थिक प्रतिबंध न लगा दें।
यही हाल भारत का है। वह आतंक के खिलाफ ऐसी घोषणाएं कर रहा है,जो हमें सुनने में तो बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन वे हैं निर्गुण-निराकार ! जैसे पाकिस्तान की तरफ बहने वाली तीन नदियों का जो पानी भारत खुद इस्तेमाल नहीं करता है और उसे पाकिस्तान जाने देता है, उसे वह रोक देगा। कब रोक देगा ? जब बांध बन जाएंगे। इस पुराने घिसे-पिटे पैंतरे को हमने फिर उछाल दिया है। हम खुश हैं कि सुरक्षा परिषद ने हमारे पक्ष में बयान जारी कर दिया है। इन घोषणाओं और बयानों से आतंकियों पर क्या असर होने वाला है? यह हमारा भी दिखावटी दंगल चल रहा है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)