केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों के भारत बंद को सफल बनाने के लिए एक तरफ, जहां विपक्षी पार्टियों ने दम लगाया था वहीं दूसरी ओर इस बंद को विफल करने की भी तैयारी पूरी की गई थी। भाजपा और उसकी समर्थक पार्टियों के शासन वाले राज्यों में प्रशासन को यह सुनिश्चित करने को कहा गया था कि बंद किसी तरह से सफल नहीं हो सके। यह पहला मौका नहीं था कि जब किसी संगठन या पार्टी ने भारत बंद का आह्वान किया था। लेकिन पहली बार यह देखने को मिला कि राज्य सरकारों ने निर्देश जारी किए कि कहीं भी दबाव डाल कर दुकानें बंद नहीं कराई जाएंगी या कोई दूसरी सेवा नहीं रोकी जाएगी। सुरक्षा और ऐहतियात बरतने के निर्देशों के साथ पहली बार देखने को मिला कि भाजपा के शासन वाले राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने निर्देश दिए और मीडिया में बयान दिया कि जोर-जबरदस्ती दुकानें, गाड़ियां आदि बंद कराने वालों पर कार्रवाई होगी। बंद समर्थकों को प्रदर्शन करने से रोकने का निर्देश पुलिस और प्रशासन को अलग से दिया गया।
इसके बावजूद भाजपा शासित राज्यों में भी बंद का असर दिया। विपक्ष के शासन वाले एक दर्जन राज्यों में तो बंद को उम्मीद से ज्यादा समर्थन मिला। वैसे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी किसी भी दूसरी विपक्षी पार्टी के मुकाबले सबसे पहले से किसानों के आंदोलन का समर्थन कर रही हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि किसान चाहेंगे तो वे दिल्ली आकर आंदोलन में शामिल हो सकती हैं। लेकिन जब किसानों के साथ खड़े होने की बात आई तो वे पीछे हट गईं। किसानों के आठ दिसंबर को भारत बंद को सफल बनाने की बजाय उन्होंने इसे नैतिक समर्थन भर दिया और उलटे उनकी सरकार इसे विफल करने के प्रयास में लग गई क्योंकि उनकी धुर विरोधी लेफ्ट पार्टियां इसका समर्थन कर रही थीं। सोचें, इस नाटक का क्या मतलब है? ममता को पता है कि आंदोलन लेफ्ट पार्टियों का नहीं है और भारत बंद की अपील लेफ्ट पार्टियों ने नहीं की है। यह आंदोलन अराजनीतिक है और किसानों का है।
इसमें जिस तरह से देश भर की पार्टियां शामिल हुई हैं वैसे ही लेफ्ट पार्टियां भी हैं। सोचें, यह कोई राजनीतिक मामला नहीं था, इसके बावजूद अपनी जिद में ममता ने थोड़ा बहुत ही सही पर किसान आंदोलन को नुकसान पहुंचा दिया। किसान संगठनों को बंगाल में सबसे ज्यादा समर्थन मिलने की उम्मीद थी। इतना ही नहीं केंद्रीय कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के आंदोलन के बीच अपने को किसानों का हितैषी साबित करने की होड़ में पार्टियां एक दूसरे को किसानों का विरोधी साबित करने में लगी हैं। इसके लिए पुराने वीडियो, पुरानी चिट्ठियां, पुराने घोषणापत्र, पुराने भाषण आदि निकाले जा रहे हैं। संसद से लेकर पार्टियों की वेबसाइट तक आर्काइव छान कर उसमें से पुरानी चीजें निकाली जा रही हैं और बताया जा रहा है कि अमुक नेता या पार्टी पहले किसानों के मुद्दे पर क्या कहता था और अब क्या कह रहा है?
इस सिलसिले में भाजपा के नेताओं ने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की पुरानी चिट्ठियां निकाली हैं, जो यूपीए की सरकार में कृषि मंत्री रहते उन्होंने लिखी थीं। पवार की दो पुरानी चिट्ठियां सोशल मीडिया में वायरल हो रही हैं, जिसमें उन्होंने अनाज मंडियों की व्यवस्था में बदलाव करने की बात लिखी थी। इस आधार पर भाजपा नेता बता रहे हैं कि पवार खुद इस एपीएमसी की व्यवस्था को बदलना चाहते थे और अब जब केंद्र सरकार ने उसे बदल दिया है तो वे उसका विरोध कर रहे हैं। पंवार की चिट्ठियां उस दिन वायरल की गईं, जिस दिन उन्होंने केंद्र सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर जल्दी समाधान नहीं निकला तो किसानों का आंदोलन सिर्फ पंजाब तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे देश में फैलेगा।