इस आपदा की छाप तो हमेशा रहेगी

0
475

आप चाहे पसंद करें या नहीं, लेकिन अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कोविड-19 महामारी फिलहाल हमारे साथ ही रहने वाली है। जिस आशावादी भावना के साथ हमने पहले लॉकडाउन का स्वागत किया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राष्ट्र से कहा था, ‘महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था, लेकिन कोरोना वायरस को हराने में 21 दिन लगेंगे’- आज बेतुका सा लगता है।

उनके इस भाषण को भी छह माह से अधिक हो चुके हैं। आज दुनिया में कोविड-19 से मरने वालों और नए रोगियों की संख्या में भारत सबसे आगे है और न ही श्री मोदी और न ही उनकी सरकार इस महामारी के खत्म होने के बारे में कोई विश्वसनीय बात कह पा रही है। वैक्सीन मार्च 2021 तक आ भी सकती है और नहीं भी।

यह काम भी कर सकती है और नहीं भी। लेकिन, अगर बहुत ही सकारात्मक परिदृश्य की बात करें तो भी तमाम लोगों को वैक्सीन लगाने में ही कई महीने लग जाएंगे और इसके बावजूद हमें यह पता नहीं होगा कि यह वैक्सीन कब तक प्रभावी बनी रहेगी।

लेकिन फिर भी अगर हम कोविड-19 के साथ इस अवधि में रहते हुए अपना जीवन और आजीविका को किसी तरह से बचा पाते हैं तो यह स्पष्ट है कि अनेक चीजों को बदलना पड़ेगा। बदलाव का स्वाभाविक क्षेत्र दुनिया की अर्थव्यवस्था है। मैं पहले भी डीग्लोबजाइजेशन (भूमंडलीकरण से देर होना) के नजर आ रहे खतरों पर लिख चुका हूं।

इस समय पूरी दुनिया में वैश्विक सप्लाई चेन को फिर से निर्धारित करने और व्यापार बाधाएं खड़ी करने की होड़ लगी हुई है। संरक्षणवाद और आत्मनिर्भरता की मांग लगातार तेज हो रही है। प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत के आह्वान में भी इसकी गूंज सुनाई दी है। इसमें निर्माण और उत्पादन की वैल्यू चेन को दोबारा से ही अपने यहां या खुद के बहुत करीब लाने की मांग बढ़ रही है।

लेकिन आज मैं इस महामारी के हमारी दैनिक जिंदगी पर पड़ने वाले प्रभावों पर अधिक विचार कर रहा हूं। अब तक हम दुनिया को करीब लाने व जोड़ने वाली जिन बातों को बहुत ही आसानी से लेते रहे हैं, वे कोविड-19 के इस दौर में सर्वाधिक संवेदनशील दिख रही हैं। महामारी और उसके बाद हुए लॉकडाउन के परिणामस्वरूप दुनिया में मुक्त और खुला अंतरराष्ट्रीय आवागमन तो लगभग ठप-सा ही हो गया है।

किसी यात्रा पर जाने से पहले व पहुंचने के बाद हर देश में लागू तमाम बाधाएं, अनिवार्य कोविड-19 टेस्ट और क्वारेंटाइन नियमों ने पहले ही अंतरराष्ट्रीय यात्रा का आनंद खत्म कर दिया है। इस महामारी का शिकार होने वाला एक अन्य क्षेत्र व्यावसायिक जिंदगी है। पहले ही काम के नए तरीके, सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन और घर से काम करना आम हो गया है। ट्विटर जैसी अनेक प्रसिद्ध कंपनियों ने अपने कर्मचारियों से अनिश्चितकाल तक के लिए घर से काम करने को कह दिया है।

ऑफिसों में साथियों के साथ काम या भीड़भाड़ वाले कार्यस्थल जल्द ही पुराने जमाने की बात हो जाएगी। आज प्रबंधक उन सवालों से जूझ रहे हैं, जो उन्होंने पहले कभी खुद से नहीं पूछे : क्या हमें कार्यालयों की जरूरत है, जब कर्मचारी मुख्य तौर पर घर से ही काम कर रहे हैं? लेकिन वाटर कूलर के पास खड़े होकर कर्मचारियों का आपस गपशप करना, उनके मेलमिलाप अथवा कॉन्फ्रेंस रूम में बहस करने का क्या होगा?

हमारे शहर भी बदल जाएंगे। शहरी योजनाकारों ने हमें छोटे और उच्च जनसंख्या वाले शहर दिए हैं। लेकिन अगर हम घर से काम कर रहे हैं तो क्या हमें बेहतर शहरों की जरूरत होगी? 24 घंटे बिजली और हाई स्पीड ब्रॉड बैंड की वजह से आसानी से गांवों में रह सकते हैं और काम कर सकते हैं।

एक बार हमारे लिए हमारे कार्यस्थल के पास रहना अनिवार्य नहीं रहा और मुक्त रूप से घुलना-मिलना कम हो गया तो फिर शहर अपनी चमक खोने लगेंगे। जनरेशन जेड (यानी जूनोटिक, इस विशेषण का इस्तेमाल उस वायरस का वर्णन करने के लिए होता है, जो पशु को मानव से अलग करता है) के लिए कामकाजी जिंदगी बहुत ही अलग होने जा रही है।

विद्यार्थी जीवन पहले ही प्रभावित है। प्राइमरी से कॉलेज स्तर तक कक्षाएं लगभग ऑनलाइन हो ही गई हैं। ऐसा लगता है कि कॉलेज की सामान्य जिंदगी, जिसमें हम भीड़ वाले कैंपस में एक-दूसरे के साथ घुलते-मिलते थे, शायद ही आसानी से बहाल हो सके।

इस महामारी के खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक एक अनदेखे खतरनाक दुश्मन वायरस का डर हम पर हावी रहेगा। हम लोगों ने किसी अजनबी से मिलते समय या किसी दोस्त को गले लगाने से डरना तो सीख ही लिया है। कोविड-19 के बाद का युग, जब भी आएगा, हमारी जिंदगी पर इस आपदा की छाप तो निश्चित ही रहेगी। एक मुहावरे को अपडेट करते हुए : हमें अपने दौर को अब बीसी (बिफोर कोविड) और एडी (आफ्टर डिजास्टर) के रूप में वर्गीकृत करने की जरूरत है।

शशि थरूर
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here