राज्यसभा में बनी खराब मिसाल

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इन दिनों देश में जिस तरह का राजकाज चल रहा है, संसदीय परंपराओं की जिस तरह से अनदेखी की जा रही है, राजनीतिक फायदे के लिए नियमों-कानूनों का जैसा इस्तेमाल हो रहा है और संवैधानिक संस्थाओं से जैसे मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है उसे देखते हुए किसी भी बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। परंतु विवादित कृषि विधेयकों को पास कराने के लिए सरकार ने राज्यसभा में जो किया वह हैरान करने वाला था। उसके बाद जो कुछ हुआ है वह भी हैरान करने वाला ही है। कहा जा सकता है कि विपक्ष के सांसदों का आचरण भी संसदीय नहीं था। अच्छी बात है, विपक्ष का आचरण संसदीय नहीं था पर क्या सरकार और आसन की ओर से संसदीय आचरण किया जा रहा था? यह भी सवाल है कि आखिर ऐसी कौन सी आफत आ रही थी, जिसकी वजह से उसी समय विधेयकों को पास कराना अनिवार्य था? इन्हें अध्यादेश के जरिए सरकार ने जून में ही कानून बना दिया था, उसे औपचारिक रूप से कानूनी रूप देना था। सरकार कह रही है कि उसके पास बहुमत है और सोमवार का दिन संसद के सत्र का आखिरी दिन भी नहीं था। फिर भी सरकार ने सदन की कार्यवाही का समय पूरा हो जाने के बाद सदस्यों की तमाम मांग के बावजूद भारी हंगामे के बीच ध्वनि मतद से उन विधेयकों को पास कराया गया, जिन्हें सरकार ऐतिहासिक बता रही है।

यह संसदीय कार्यवाही का नियम है और परंपरा भी है कि अगर सदन का एक भी सदस्य किसी मसले पर मत विभाजन की मांग करता है तो चाहे बाकी सौ में से 99 सदस्य उसके विरोध में हों, आसन को मत विभाजन कराना होता है। अगर आसन को लगता है कि लॉबी क्लीयर करके मत विभाजन नहीं कराना जाना चाहिए तब भी अनौपचारिक रूप से सांसदों की गिनती की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि पक्ष और विपक्ष में मोटे तौर पर क्या संख्या है। जब किसी मसले पर पक्ष और विपक्ष में अंतर बहुत कम हो या बिल्कुल न हो तब तो हर हाल में मत विभाजन होना चाहिए। इसी तरह अगर सरकार कह रही है कि वह एक ऐतिहासिक बिल ला रही है, जिसे वाटरशेड बिल कहा जा रहा है, जो किसानों की किस्मत बदल देगी और ऐसे बिल का अगर विपक्ष विरोध कर रहा है तो ऐसे बिल पर भी अनिवार्य रूप से मतदान होना चाहिए ताकि विपक्ष को एक्सपोज किया जा सके। सरकार वोटिंग करा कर लोगों में यह मैसेज जाने देती कि किसानों के हित के इतने महत्वपूर्ण विधेयक का विपक्ष की इन इन पार्टियों ने विरोध किया है।

परंतु विपक्ष को एक्सपोज करने की बजाय सरकार ने मत विभाजन नहीं होने दिया। राज्यसभा में चल रही बहस और हंगामे के बीच सत्तापक्ष के एक सांसद अपनी सीट से उठ कर जाते हैं और उप सभापति के कान में बात करते हैं, उसके बाद उप सभापति सिर झुका कर संसदीय कार्यवाही करने का दिखावा करते हैं, विपक्षी सांसदों को मार्शल से उठवा कर बाहर किया जाता है और ध्वनि मत से विधेयक पास कर दिया जाता है। इसका तो दो मतलब निकलता हैं। पहला यह कि सरकार के पास बहुमत नहीं था। अगर सरकार के पास बहुमत होता तो इतना नाटक करने की जरूरत नहीं थी। सांसदों की गिनती हो जाती और बिल पास हो जाता। दूसरा कारण यह है कि सरकार के पास बहुमत है पर वह बहुमत दिखाने की बजाय बाहुबल दिखाना चाहती है ताकि आगे से विपक्ष इस तरह का विरोध नहीं करे। तभी बहुमत दिखाने की बजाय विपक्ष को डरा-धमका, धकिया कर सदन से बाहर निकाल कर, संसदीय परंपराओं और नियमों को ताक पर रख कर असंसदीय तरीके से बिल पास कराया गया। इससे विपक्ष को सबक दिया गया और आगे किस तरह से कामकाज होना है इसकी झलक दिखलाई गई। यह बताया गया है कि लिंचिंग सिर्फ सड़कों पर नहीं होगी, संसद में भी हो सकती है।

सरकार इतने पर भी नहीं रूकी। यह जानते हुई भी कि टकराव की शुरुआत सत्तापक्ष की तरफ से हुई है, विपक्षी सांसदों के ऊपर कार्रवाई की गई। सत्तापक्ष ने जब मत विभाजन की मांग को खारिज किया तब विपक्ष ने हंगामा शुरू किया। सो, सरकार को जिम्मेदार ठहराने की बजाय सभापति ने आठ विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया। उनका पक्ष चुने बिना उन्हें सत्र की बची हुई अवधि के लिए निलंबित कर दिया गया। इन पर कार्रवाई करके ऐसा दिखाया जा रहा है जैसे सारी गलती विपक्ष की हो।

विपक्ष की ओर से उप सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया था। सभापति ने बिना उस पर विचार किए नोटिस को खारिज कर दिया और कहा कि इसके लिए 14 दिन का समय देने की अनिवार्यता होती है, जिस पर विचार नहीं किया गया। क्या सभापति महोदय को नोटिस देने और कार्रवाई करने के बीच का फर्क नहीं पता है? नोटिस देने के बाद कार्रवाई के लिए 14 दिन के समय की सीमा होती है। नोटिस देने के लिए नोटिस नहीं देना होता है और विपक्ष यह नहीं कह रहा था कि अभी उसने नोटिस दिया है तो आज ही कार्रवाई हो। नोटिस मिलने के बाद कायदे से 14 दिन तक की समय सीमा का पालन किया जाता और उस दौरान उप सभापति सदन की कार्यवाही का संचालन नहीं करते। फिर उसके बाद सभापति उसे खारिज करते या चर्चा कराते तो यह नियम सम्मत कार्रवाई होती। पर उसे विचार किए बिना खारिज कर देने से कोई अच्छी मिसाल नहीं कायम हुई है। इससे एक गलत परंपरा कायम हुई है

अजीत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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