बिहार में नया एमवाई समीकरण

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हार की मुख्य विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की ताकत लालू प्रसाद का बनाया एमवाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण है। इन दोनों का वोट 30 फीसदी के करीब है और इसी वोट बैंक की वजह से लालू प्रसाद सत्ता से बाहर होने के बाद भी राज्य की राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं। राजद की राजनीति हमेशा इस वोट बैंक के साथ एकाध दूसरी जातियों का वोट जोड़ने की रहती है। जब कामयाबी मिलती है तो सीटें बढ़ जाती हैं और कामयाबी नहीं मिलती है तो सीटें कम हो जाती हैं पर राजद का वोट प्रतिशत एक निश्चित सीमा तक हमेशा ही रहता है। बहरहाल, जब तक राजद के एमआई समीकरण में सेंध नहीं लगेगी, तब तक बिहार में राजद एक बड़ी ताकत बनी रहेगी।

ऐसा लग रहा है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में राजद के इस वोट बैंक को बांटने की गंभीर राजनीति हो रही है। जैसे हर राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम वोट बांटने के लिए असदुद्दीन ओवैसी अपनी पार्टी लेकर पहुंच जाते हैं वैसे ही वे बिहार भी पहुंच गए हैं। बिहार में उन्होंने एक पुराने समाजवादी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव को साथ जोड़ा है। दोनों ने मिल कर नया एमवाई समीकरण बनाया है।

पिछले साल अक्टूबर में हुए उपचुनाव में मुस्लिम बहुल किशनगंज सीट पर ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार कमरूल होदा ने भाजपा को हरा कर सीट जीती थी। पहली बार एमआईएम का बिहार में खाता खुला था। इसके बाद से ही माना जाने लगा कि मुस्लिम बहुल इलाकों में ओवैसी की पार्टी राजद गठबंधन को कमजोर करेगी। ओवैसी के साथ देवेंद्र यादव के मिल जाने और पूर्व सांसद पप्पू यादव के स्वतंत्र रूप से राजनीति करने से राजद के मुस्लिम-यादव वोट बैंक पर वास्तविक खतरा दिख रहा है।

वैसे राजद के सामने दिक्कत दूसरी भी है। तेजस्वी यादव की सारी राजनीति लालू प्रसाद के बनाए जातीय और सामाजिक समीकरण पर टिकी है लेकिन इस बार वे चाहते हैं कि वोटिंग लालू प्रसाद के नाम पर न हो। एक तरफ भाजपा और जदयू दोनों ने लालू प्रसाद के नाम का मुद्दा बनाया है तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव अपने पिता के नाम से छुटकारा पाने की जद्दोजहद में लगे हैं। तभी लालू-राबड़ी के आवास के बाहर लगे होर्डिंग से लेकर पटना और राज्य के हर हिस्से में राजद ने जो पोस्टर, होर्डिंग्स लगाए हैं उनमें लालू प्रसाद की फोटो नहीं है। ज्यादातर जगहों पर राबड़ी देवी की तस्वीर भी नदारद है। 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद खूब सक्रिय थे और चुनावी राजनीति कर रहे थे पर चेहरा नीतीश कुमार का दिखाया जा रहा था। इसलिए भाजपा और तब की उसकी दूसरी सहयोगियों के प्रचार का ज्यादा असर नहीं हुआ।

उसी तर्ज पर इस बार तेजस्वी अपना चेहरा दिखा रहे हैं। लोगों को यह भरोसा दिला रहे हैं कि लालू प्रसाद वाली राजनीति अब अतीत की बात है। वे हर जाति और समाज के लोगों को टिकट दे रहे हैं ताकि सिर्फ एक जाति की पार्टी होने का राजद की छवि टूटे। इसमें उनको कितनी कामयाबी मिलेगी यह चुनाव के बाद पता चलेगा। पर इतना तय है कि भाजपा और जदयू तो लालू प्रसाद के नाम पर और उनका चेहरा दिखा कर ही चुनाव लड़ेंगे। वैसे बिहार की राजनीति का 90 से ये दस्तूर रहा है कि या तो आप लालू समर्थक हैं या लालू विरोधी तो क्या तेजस्वी अब इस स्थिति में खुद को मानते हैं कि वो लालटेन को अपने बलबूते जलाए रखेंगे? मुश्किल है लेकिन असंभव तो राजनीति में कुछ भी नहीं।

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