भाषा इंतजार नहीं करती, गतिमान रहती है अशोक माहेश्वरी

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आज के समय में किसी भी बात का महत्व विचार से ज्यादा बाजार से तय होता है। बाजार की दृष्टि से भारतीय भाषाओं का आकलन कभी किया ही नहीं गया। अभी हमारे देश का पूरा तंत्र अंग्रेजीमय है। शिक्षा, न्याय, स्वास्थ्य, शासन सब अंग्रेजी में। केवल अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा के होने से ही पाठ्यपुस्तकों का बाजार 2020 में 518 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा होने का अनुमान था। हमारी सभी प्रमुख भाषाएं जब अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षा का माध्यम बनेंगी तो यह बाजार बहुत बड़ा हो जाएगा। अभी कंप्यूटर सारे काम अंग्रेजी माध्यम में ही करता है। इसके अठारह भारतीय भाषाओं में होने पर बाजार के विस्तार की संभावना भी चार गुना से अधिक तो होनी ही चाहिए। भाषागत आदर्शों को यथार्थवादी नजरिए से देख-परख कर, एक व्यावहारिक दृष्टि विकसित कर विचार और बाजार के बीच संतुलन स्थापित करना उतना भी मुश्किल काम नहीं।

हर भाषा को फायदा स्वदेशी भाषाओं में शिक्षा और कामकाज को बढ़ावा मिलने से सभी भारतीय भाषाओं के बीच आवाजाही बढ़ेगी। भाषाओं में सीधे आपसी अनुवाद को बढ़ाकर हम अपने बौद्धिक समाज को भी ताकत देंगे। पाठक साहित्य मातृभाषा में पढ़ना पसंद करते हैं। सभी भाषाओं की पुस्तकों की जरूरत सभी भाषाओं में होगी। हर एक भाषा से चुनकर एक-एक श्रेष्ठ पुस्तक भी लें तो अठारह गुना पाठक उसे हमारे देश में ही मिलेंगे। अनुवादकों, भाषाविदों, संपादकों की जरूरत इस क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा करेगी।

भारतीय भाषाओं में आदान-प्रदान बढ़ेगा तो विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद की संभावना बढ़ेगी। इससे होने वाली आय भारतीय भाषाओं के अनुपात में बहुत ज्यादा होगी। भारत में साहित्यिक पुस्तकों का बाजार, एक भाषा में, इस समय लगभग 400 करोड़ रुपये का है। यह सभी भारतीय भाषाओं में मिलकर 7400 करोड़ तक जा सकता है। भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों का विपुल भंडार है। प्रत्येक भाषा में प्राचीन और मध्यकालीन भक्ति ग्रंथों के साथ-साथ समकालीन कालजयी पुस्तकें भी पर्याप्त संख्या में हैं। विकसित देशों की भाषाओं के साहित्य के साथ इनकी तुलना सहज ही की जा सकती है। भारतीय भाषाओं को बढ़ावा मिलने से आर्थिक लाभ के साथ-साथ हमारी सम्मानजनक उपस्थिति भी विश्व समाज में दर्ज होगी। विदेशों में बसे भारतीय भी, चाहे वे भारत की किसी भी भाषा से जुड़े हों, अपनी भाषा की पुस्तकें पढ़ना चाहते हैं। जो यहां से गए, वे तो अपनी मातृभाषा में पुस्तकें पढ़ने में सहज रहते हैं लेकिन उनके बच्चे नहीं। इसके लिए इन बच्चों के माता-पिता अपने ग्रंथों, पुस्तकों के अनुवाद चाहते हैं। इस काम में वे बहुत मददगार साबित हो सकते हैं।

अपनी भाषा में न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार का होना राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ हमारी आर्थिकी को भी मजबूत करेगा। जिस भाषा में हम सहज होते हैं, जिस भाषा में हम सोचते हैं, उसी में काम करने से बेहतर परिणाम मिलते हैं। दूसरी भाषा में सहज होने और सोचने की प्रक्रिया तक आने में चार पीढ़ियां खप जाती हैं। हमारी आत्मनिर्भरता की कुंजी हमारी भाषाओं में छिपी है।

भाषा इंतजार नहीं करती। वह गतिमान रहती है। कोई भी जीवंत भाषा अपने क्षेत्र का विस्तार, प्रभाव की व्यापकता और आय प्राप्ति का साधन बनाती चलती है। सोशल मीडिया और इंटरनेट इसके उदाहरण हैं। हिंदी की पुरानी पीढ़ी, जो सोशल मीडिया को बेकार और उद्दंड माध्यम मानती थी, आज इसका इस्तेमाल नई पीढ़ी से बेहतर कर रही है। यूट्यूब पर ऑडियो, विडियो, रिकॉर्डिंग, ब्लॉग लेखन, पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन, फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि लोगों तक अपनी बात पहुंचाने, अपने विचारों के लिए अनुकूल माहौल बनाने, उत्पादों को लोकप्रिय बनाने का तरीका बन गए हैं। ज्यादा देखे-सुने जाने वाले लोकप्रिय पोस्ट संख्या के आधार पर विज्ञापन पाकर आय का वैकल्पिक साधन बन गए हैं।

हमारी भाषाएं संघर्ष की भाषाएं हैं, विशेष रूप से हिंदी। इसका जन्म ही आंदोलन से हुआ है। अपनी भाषा से विश्वास बढ़ता है। विश्वास से आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से आत्मनिर्भरता आती है। आज के संदर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है। वैश्विक फलक पर अपने देश की उपस्थिति को और अधिक मजबूत बनाने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति की एकजुटता प्रकट करनी होगी।

भारत विश्वगुरु है, ऐसा बार-बार कहा जाता है। हमारे राजनेता यह लगातार दोहराते हैं। वे यह नहीं समझना चाहते कि भारत जब विश्वगुरु था तब वह अपनी भाषा में काम करता था। उस समय हम नई से नई खोज कर रहे थे। हमारे ग्रंथों का अनुवाद दुनिया भर की भाषाओं में होता था। कुमारजीव संस्कृत और बौद्धग्रंथों का अनुवाद मंदारिन में करके अमर हो गए। आधुनिक काल में भी जॉर्ज ग्रियर्सन जैसे विद्वान संस्कृत के अध्ययन और अनुवाद के लिए दुनिया में जाने जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ठीक ही कह गए हैं, ‘हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सद्ग्रंथ।’ घास से भरकर धरती हरी हो गई है, रास्ते दीख नहीं रहे हैं। ऐसे ही जैसे झूठ के बढ़ने से अच्छी बातें (सद्ग्रंथ) छिप जाती हैं। भारतीय भाषाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ है। प्रचार के शोर में इनकी उज्ज्वल कीर्ति छिप गई है।

मातृभाषा पर जोर आइंस्टाइन और गांधी जैसे महापुरुषों ने अपनी मातृभाषा में शिक्षा और पठन-पाठन की जोरदार वकालत की है। भारतेंदु हरिश्चंद्र अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही कह गए, ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’। आज भी हमारे देश और दुनिया के शिक्षाविद अपनी भाषा में शिक्षा पर जोर देते हैं। यह काम कठिन नहीं है। जरूरत बारहवीं कक्षा तक एक विषय के रूप में निज भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने की है। आठवीं तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहे, इसके बाद की शिक्षा के लिए छात्र किसी भी भाषा को माध्यम के रूप में चुन सकता है। पर बारहवीं कक्षा तक अपनी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए। इन प्रयासों से हम आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर मजबूत कदम बढ़ा सकते हैं क्योंकि सम्मान, स्वाभिमान और बराबरी का भाव इसी से जुड़ा है।

अशोक माहेश्वरी
(लेखक पब्लिसर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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